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प्रेक्षयान सिद्धान्त और प्रयोग की अनेक मागे होती है। हम उन मागों को पूरा करते चले जाते हैं। फलत हमारी शक्ति स्खलित होती जाती है। उसके जागरण का सत्र है-मन की माग का अस्वीकार। मन की मांग के अस्वीकार का अर्थ है-संकल्प-शक्ति का विकास। यही संयम है। जिसका निश्चय (संकल्प या संयम) दृढ होता है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं होता।
संयम से जीव आस्रव (बुरी वृत्तियों) का निरोध करता है। संयम का फल अनास्रव है। जिसमें संयम की शक्ति विकसित हो जाती है, उसमें विजातीय द्रव्य का प्रवेश नहीं हो सकता। संयमी मनुष्य बाहरी प्रभावों से प्रभावित नहीं होता। संयम का सूत्र है-सब काम ठीक समय पर करो। सब काम निश्चित समय पर करो। यदि आप दो बजे ध्यान करते हैं और प्रतिदिन उस समय ध्यान ही करते हैं, मन की किसी अन्य मांग को स्वीकार नहीं करते, तो आपकी संयम-शक्ति प्रबल हो जाएगी।
___ संयम एक प्रकार का कुंभक है। कुंभक में जैसे श्वास का निरोध होता है, वैसे ही संयम में इच्छा का निरोध होता है। सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, बीमारी, गाली. मारपीट-इन सब घटनाओं को सहन करो। यह उपदेश नहीं है। यह संयम का प्रयोग है। सर्दी लगती है, तब मन की मांग होती है कि गर्म कपड़ों का उपयोग किया जाए या सिगड़ी आदि की शरण ली जाए। गर्मी लगती है, तब मन ठंडे द्रव्यों की मांग करता है। संयम का प्रयोग करने वाला उस मांग की उपेक्षा करता है। मन की मांग को जान लेता है, देख लेता है, पर उसे पूरा नहीं करता। ऐसा करते-करते मन मांग करना छोड़ देता है, फिर जो घटना घटती है, वह सहज भाव से सह ली जाती है।
संयम-शक्ति का विकास इस प्रक्रिया से किया जा सकता है-जो करना है या जो छोड़ना है, उसकी धारणा करो-उस पर मन को पूरी एकाग्रता के साथ केन्द्रित करो। निश्चय की भाषा में उसे बोलकर दोहराओ, फिर उच्चारण को मंद करते हुए उसे मानसिक स्तर पर ले आओ। उसके बाद ज्ञान-तंतुओं (SensoryNerves) और कर्म-तंतुओं (Motor Nerves) को कार्य करने का निर्देश दो। फिर ध्यानस्थ और तन्मय हो जाओ। इस प्रक्रिया के द्वारा हम शक्ति के उस स्रोत को उद्घाटित करने में सफल हो जाते हैं, जहां सहने की क्षमता स्वाभाविक होती है। ___संकल्प का तात्पर्य है-दृढ़ निश्चय। किसी एक विचार का निश्चय कर उसमें तन्मय होना संकल्प है। संकल्प चित्त की वह दृढ़ स्थिति है, जिसमें
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