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प्रेक्षाध्यान : आधार और स्वरूप
२१ लेकर दायें से निकालना और दायें से लेकर बायें से निकालना-यह है समवृत्ति-श्वास । इसे देखना, इसकी प्रेक्षा करना, इसके साथ चित्त का योग करना महत्त्वपूर्ण बात है। प्रारम्भ में अगुली द्वारा और बाद में संकल्प-शक्ति द्वारा श्वास की दिशा में परिवर्तन किया जाता है। समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा के माध्यम से चेतना के विशिष्ट केन्द्रों को जागृत किया जा सकता है। इसका सतत अभ्यास अनेक उपलब्धियों में सहायक हो सकता है।
दीर्घश्वास की साधना, चिरकालिक अभ्यास । साधक को पल-पल रहे, अपना ही आभास ।। जागृत साक्षीभाव में, श्वास स्वयं है मन्द । गति-आगति को देखना, प्रेक्षा का निस्यन्द ।। चलते, सोते, बैठते, करते काम प्रकाम। प्रेक्षा केवल श्वास की, याद रहे हर याम।। मानस की एकाग्रता, तन विकार से दूर । क्षीण अहं की चेतना, क्रोध लोभ भी चूर।। एक मिनट में सहज है, सोलह-सतरह श्वास । प्रेक्षा से गति-मन्दता, बिना किए अभ्यास।। प्रारम्भिक अभ्यास में, पांच-सात उच्छवास। दीर्घ-साधना से स्वयं संभव सतत विकास।। एक मिनट में एक ही, जिस क्षण आए श्वास। मनस्तोष मिलता प्रचुर, जग जाता विश्वास ।। पूरक-रेचक-प्रक्रिया, कुम्भक प्राणायाम । श्वास-संयमन का नियम, निर्विवाद अभिराम ।। कैसे कर सकते कहो, वे नर प्रेक्षा-ध्यान ? श्वास-क्रिया-अनभिज्ञ जो, होकर भी मतिमान्।। संगीतात्मक श्वास हो, जब गहरा लयबद्ध । विकसित अन्तश्चेतना, स्वयं-स्वयं से बद्ध ।। स्थूल साधना योग से, होता सूक्ष्म-प्रवेश। प्रेक्षा सतत शरीर की, मिटे सभी संक्लेश ।। बाहर भीतर एकरस रहता है जो धीर। उसे नहीं लगता कभी. ठंडा गरम समीर ।। बाह्यरमण से ही मनुज, बनता जो निष्णात। तो आलोडन के बिना मिल जाता दधिजात।।
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