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प्रेक्षाध्यान : आधार और स्वरूप शरीर में उत्पन्न करती रहती है। नवीनतम शरीर-शास्त्रीय अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि इन स्पन्दनों का हमारी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है, जिनके द्वारा हमारी भावधारा, चिंतन एवं आचरण को प्रभावित किया जा सकता है।
___ध्वनि-प्रकंपनों के प्रभाव से हमारी अनैच्छिक तंत्रिका-संस्थान की दो धाराओं-अनुकंपी और परानुकंपी तंत्रिकाओं के बीच अधिक अच्छा संतुलन स्थापित होता है। एकाग्रता और अप्रमाद
प्रेक्षा से अप्रमाद (जागरूक भाव) आता है। जैसे-जैसे अप्रमाद बढ़ता है, वैसे-वैसे प्रेक्षा की सघनता बढ़ती है। हमारी सफलता एकाग्रता पर निर्भर है। अप्रमाद या जागरूक भाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। शुद्ध उपयोगकेवल जानना और देखना बहुत महत्त्वपूर्ण है किंतु इनका महत्त्व तभी सिद्ध हो सकता है, जब ये लम्बे समय तक निरन्तर चलें। पचास मिनट तक एक आलम्बन पर चित्त की प्रगाढ़ स्थिरता का अभ्यास होना चाहिए। यह सफलता का बहुत बड़ा रहस्य है।
ध्यान का स्वरूप है अप्रमाद, चैतन्य का जागरण या सतत जागरूकता। जो जागृत होता है, वही अप्रमत्त होता है। जो अप्रमत्त होता है, वही एकाग्र होता है। एकाग्रचित्त वाला व्यक्ति ही ध्यान कर सकता है। जो अपने अस्तित्व के प्रति प्रमत्त होता है-अपने चैतन्य के प्रति जागृत नहीं होता, वह सब ओर से भय का अनुभव करता है। जो अपने अस्तित्व के प्रति अप्रमत्त होता है-अपने चैतन्य के प्रति जागृत होता है वह कहीं भी भय का अनुभव नहीं करता, सर्वथा अभय होता है। ___अप्रमत्त व्यक्ति को कार्य के बाद उसकी स्मृति नहीं सताती। बातचीत के काल में बातचीत करता है। उसके बाद बातचीत का एक शब्द भी याद नहीं आता। यह सबसे बड़ी साधना है। आदमी जितना काम करता है, उससे अधिक वह स्मृति में उलझा रहता है। भोजन करते समय भी अनेक बातें याद आती हैं। जिस समय जो काम किया जाता है, उस समय उसी में रहने वाला साधक होता है। शरीर, मन और वाणी का योग या सामंजस्य विरल व्यक्तियों में ही मिलता है। जहां शरीर और मन का सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता, वहां विक्षेप, चंचलता और तनाव होते हैं।
साधना का अर्थ है-कर्म, मन और शरीर की एक दिशा। इसे
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