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प्रेक्षाध्यान सिद्धान] और प्रयोग भी नहीं होता। कम बोलना साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है। इससे शनि संचित होती है।
आसन-प्राणायाम
प्रेक्षा-ध्यान की साधना के लिये प्रतिदिन आसन और प्राणायाम करना आवश्यक है क्योंकि जब तक शरीर को नहीं साधा जाता और खास कर आसन विशेष में कम से कम एक घण्टे तक स्थिर होकर बैठने का अभ्यास नहीं होता, तब तक ध्यान की गहराई में नहीं उतरा जा सकता। जैसे ही ध्यान की गहराई में जाने की कोशिश की जाएगी, शरीर साथ छोड़ देगा, आसन बदलना अनिवार्य हो जाएगा। आसन सिद्ध करना ध्यान की गहराई में जाने के पहले अनिवार्य है। इसीलिए प्रेक्षाध्यान पद्धति में आसन को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। आसनों का लगातार अभ्यास शरीर को जरा, व्याधि और इन्द्रिय-क्षीणता से बचाए रखता है। शरीर स्वस्थ रहने पर साधना सुगम हो जाती है।
प्राणायाम
प्राणायाम का भी प्रेक्षाध्यान में बहुत महत्त्व है, क्योंकि श्वास पर नियंत्रण किए बिना वृत्तियों का और भावों का परिष्कार नहीं हो सकता। हमारी जितनी भी वृत्तियां हैं, चाहे वे निषेधात्मक हों या विधेयात्मक सबके साथ श्वास का सम्बन्ध है। गहरा और लम्बा श्वास विधेयात्मक भावों के लिए उपयुक्त है। नाड़ी-तंत्र का परिष्कार भी श्वास पर निर्भर है। हीन भावना (Inferiority Complex) और उच्च भावना (Superiority Complex) से ग्रसित होना निषेधात्मक भाव है। वैज्ञानिक दृष्टि से सिम्पैथेटिक और पेरा-सिम्पैथेटिक तथा योग की दृष्टि से इड़ा और पिंगला का संतुलन ही प्राणायाम के माध्यम से किया जाता है।
मुदा
प्रेक्षाध्यान भाव-परिवर्तन की एक प्रक्रिया है। जैसे हमारी भाव होते हैं, वैसी ही हमारे शरीर की मुद्राएं बनती हैं। अगर हम आलस्य में हैं, तो शरीर की वैसी ही मुद्रा बनेगी। अगर शोक में हैं, तो वैसी मुद्रा बनेगी। इस तरह प्रसन्नता, जल्दबाजी, धैर्य, जिज्ञासा, अहंकार, क्रोध, लोभ, आसक्ति, घृणा आदि जितने भी भाव हैं, उतनी ही उनकी मुद्राएं स्पष्टतया शरीर पर दृष्टिगोचर होने लगती हैं। प्रेक्षाध्यान का एक उद्देश्य है-निषेधात्मक भावा
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