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आसन, प्राणायाम और मुद्रा
१८६ के ग्रन्थों में आती है। उनका अपना विशिष्ट कार्य है, जिससे हिचकी लेना, छींकना, जम्हाई लेना आदि क्रियाएं होती हैं। शरीर और चेतना का सेतु-प्राण
शरीर में चैतन्य की अभिव्यक्ति प्राण द्वारा ही होती है। प्राण संपूर्ण शरीर में परिव्याप्त है। जैन परम्परा में प्राणों के विभाग को इस रूप से अभिव्यक्त किया गया है : १. श्रोत्रेन्द्रिय प्राण
२. चक्षुरिन्द्रिय प्राण ३. घ्राणेन्द्रिय प्राण
४. रसनेन्द्रिय प्राण ५. स्पर्शनेन्द्रिय प्राण
६. मनोबल/प्राण ७. वचन बल/प्राण
८. कायबल/प्राण ६. श्वासोच्छवास प्राण १०. आयुष्य/प्राण
पांच इन्द्रियों को सक्रिय रखने वाले प्रथम पांच प्राण हैं। मन, वचन और काया को सक्रिय रखने वाले मन, वचन और काया-प्राण हैं।
श्वासोच्छवास प्राण रक्त शोधन की क्रिया के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर को सक्रिय रखता है। आयुष्य प्राण जीवन की अवधि के अस्तित्व का आधार है।
शरीर तक चैतन्य की धारा को प्रवाहित करने वाले प्राण नाना विधाओं से अपना कार्य करते हैं। श्रवणेन्द्रिय के समस्त क्रिया-कलापों को श्रोत्रेन्द्रिय प्राण नियन्त्रित करता है। इन्द्रिय के दो प्रकार हैं-द्रव्य और भाव । द्रव्य-इन्द्रिय भौतिक है। इसका बाह्याकार और रचना शरीर में स्पष्ट है। द्रव्य-इन्द्रियां भावेन्द्रिय की सूचनाओं को ग्रहरण करती है, वहां बाहर से आने वाले संकेतों को भाव जगत तक पहुंचाती है। इस प्रकार बाहर और अन्तर जगत का सम्बन्ध बना हुआ है। श्रवण-इन्द्रिय की तरह चक्षुरिन्द्रिय आदि कार्य करते हैं।
मन-प्राण, वचन-प्राण और काया-प्राण अपने-अपने कार्यों को सुचारु ढंग से करते हैं।
मन मनोवर्गणाओं के स्कन्धों को शरीर से ग्रहण कर चिंतन, मनन, स्मृति, कल्पना द्वारा अपना कार्य करता है। वचन भी इसी तरह भाषा-वर्गणा के स्कन्धों को शरीर से ग्रहण कर विचार, संकेत स्वर और भाषा के द्वारा अपना कार्य करता है।
- द्रव्य-इन्द्रिय और द्रव्य-प्राण, भाव-इन्द्रिय और भाव-प्राण क्रमशः भौतिक और अभौतिक हैं।
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