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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
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जागृत करता है। इस जागृति का निमित्त प्राणायाम बनता है। श्वास-प्रश्वास को व्यवस्थित एवं संयमित करने से प्राणायाम फलित होता है। अतः श्वास-प्रश्वास पूरक, रेचक और कुंभक को प्राणायाम कह दिया जाता किंतु साधना करने वाला साधक इस भेद-रेखा को स्पष्ट समझता है। विद्युत् बल्ब के द्वारा अभिव्यक्त होती है। तारों में प्रवाहित होने वाला विद्युत् प्रवाह तार एवं बल्ब से भिन्न है, हालांकि बल्ब एवं तार के द्वारा विद्युत् को अनुशासित एवं व्यवस्थित किया जाता है। ठीक विद्युत्-प्रवाह की तरह प्राण भी प्राणायाम के द्वारा जागृत और अनुशासित होता है । महर्षि पतंजलि के अनुसार श्वास और प्रश्वास की गति का विच्छेद ही प्राणायाम है। जब श्वास-प्रश्वास अनुशासित होकर निग्रह की स्थिति में पहुंचता है, तब प्राणायाम की पूर्णता होती है। "प्राण वै बलम्" अर्थात् प्राण ही बल है - इसके अनुसार प्राण शक्ति-संपन्न होकर शरीर के अंग-अंग में फैलता है, और उसे बलवान बनाता है ।
प्राणायाम संजीवन शक्ति है, जिससे शारीरिक स्वास्थ्य तो बनता ही है, साथ-साथ चित्त की निर्मलता भी बढ़ती है। इससे आध्यात्मिक शक्ति को जागृत होने का अवसर उपलब्ध होता है । प्राणायाम मानसिक शांति एवं आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। उससे समाधि की उपलब्धि होती है, व्यक्ति अपने स्वरूप की यात्रा करने लगता है। शारीरिक स्वास्थ्य उसका पहला फलित है।
महर्षि पतंजलि ने प्राणायाम के परिणाम की चर्चा करते हुए लिखा है- "ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् " - प्राणयाम के द्वारा प्रकाश पर आया आवरण क्षीण हो जाता है। चेतना पर आया आवरण हट जाता है। प्राणायाम केवल श्वास-प्रश्वास का व्यायाम नहीं है, अपितु कर्म- निर्जरा का वह महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है जिससे चित्त की निर्मलता बढ़ती है। ज्ञान का विकास होता है। इन्द्रिय- शुद्धि एवं मन की प्रसत्ति एवं एकाग्रता बढ़ती है।
दहन्ते ध्यायमानानां धातूनां हि यथामलाः । तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् । ।
स्वर्ण, रजत आदि धातुओं के मल को जलाने के लिए अग्नि उपयोगी है वैसे ही इन्द्रिय-विकार को जलाने के लिए प्राणायाम आवश्यक । प्राण के निग्रह से दोषों का परिहार हो, सिंह की तरह पराक्रम उत्पन्न होता है।
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