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प्रक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
जीवन जीना, काल्पनिक जीवन जीना और कल्पना लोक में उड़ान भरना द्रव्यक्रिया है ।"
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हमारा अधिकांश समय अतीत की उधेड़बुन में या भविष्य की कल्पना में बीतता है। अतीत भी वास्तविक नहीं है और भविष्य भी वास्तविक नहीं है। वास्तविक है वर्तमान । वर्तमान जिसके हाथ से छूट जाता है, वह उसे पकड़ ही नहीं पाता। वास्तविकता यह है कि जो कुछ घटित होता है, वह होता है वर्तमान में। किन्तु आदमी उसके प्रति जागरूक नहीं रहता। भावक्रिया का पहला अर्थ है - वर्तमान में रहना ।
भावक्रिया का दूसरा अर्थ है- जानते हुए करना । हम जो भी करते हैं, वह पूरी मन से नहीं करते । मन के टुकड़े कर देते हैं। काम करते हैं, पर मन कहीं भटकता रहता है। वह काम के साथ जुड़ा नहीं रहता । काम होता है अमनस्कता ( absent-mindedness) से । वह सफल नहीं होता ।
कार्य के प्रति सर्वात्मना समर्पित हुए बिना उसका परिणाम अच्छा नहीं आता। इसमें शक्ति अधिक क्षीण होती है, अनावश्यक व्यय होता है और काम पूरा नहीं होता। अतः हम जिस समय जो काम करें, उस समय हमारा शरीर और मन दोनों साथ-साथ चलें ।
भावक्रिया का तीसरा अर्थ है-स - सतत अप्रमत्त रहना । साधक को ध्येय के प्रति सतत अप्रमत्त और जागरूक रहना चाहिए। ध्यान का पहला ध्येय है - चित्त की निर्मलता । चित्त को हमें निर्मल बनाना है। ध्यान का दूसरा ध्येय है- सुप्त शक्तियों को जागृत करना । हमारी ध्यान-साधना के ये दो ध्येय हैं। इनके प्रति सतत जागरूक रहना भावक्रिया है ।
द्रव्यक्रिया चित्त का विक्षेप है और ध्यान का विघ्न है। भावक्रिया स्वयं साधना और स्वयं ध्यान है । हम चलते हैं और चलते समय हमारी चेतना जागृत रहती है। "हम चल रहे हैं " - इसकी स्मृति रहती है - यह गति भावक्रिया है ।
साधक का ध्यान चलने में ही केन्द्रित रहे, चेतना गति को पूरा साथ दे - यह गमनयोग है ।
२. प्रतिक्रिया-निवृत्ति
उपसंपदा का दूसरा अर्थ है-क्रिया करना, प्रतिक्रिया न करना । १. जिसमें केवल शरीर की क्रिया हो, वह द्रव्यक्रिया है। जिसमें शरीर और चित्त दोनों की संयुक्त क्रिया हो, वह भावक्रिया है 1
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