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प्रक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
और चित्त की निर्मलता के आधार पर संभावित दोषों का शोधन करते चले जायेंगे, तब व्यवहार के क्षेत्र में भी जीवन यात्रा सुखद होती चली जायेगी। अनित्य अनुप्रेक्षा
अनित्य अनुप्रेक्षा का क्रम प्रारम्भ करने के लिए शांत और जागृत रहकर संकल्प करें कि अनित्य अनुप्रेक्षा करनी है। पहला सूत्र है- "इमं सरीरं अणिच्चं " - यह शरीर अनित्य है ।
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दूसरा सूत्र है- “इमं शरीरं चयावचयधम्मयं " - यह शरीर चय- अपचय धर्मा है अर्थात् यह पुष्ट होता है, क्षीण होता है ।
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तीसरा सूत्र है - " इमं शरीरं विपरिणामधम्मयं " - यह शरीर विपरिणामधर्मा है अर्थात् इसमें नाना प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं। कभी गर्मी से, कभी सर्दी से, कभी भोजन से, कभी बीमारी से परिवर्तन होता रहता है।
चौथा सूत्र है- “इमं शरीरं जरा-मरण-धम्मयं " - यह शरीर जरा-मरण-धर्मा है अर्थात् इसमें वृद्धावस्था घटित होती है और मृत्यु घटित होती है । हम शरीर को इतना ढीला छोड़ दें कि मानो मृत्यु का अनुभव हो रहा है । यह भावनात्मक परिवर्तन है । भावनात्मक परिवर्तन के द्वारा भावना की अत्यन्त तीव्रता और सघनता के द्वारा हम उस स्थिति का अनुभव करते हैं, जो कुछ समय के बाद घटित होने वाली है ।
शरीर अनित्य है, यौवन अनित्य है, परिवार के संयोग अनित्य है, वैभव सम्पदा अनित्य है, इष्ट का संयोग भी अनित्य है और क्या - जीवन भी अनित्य है । जिस साधक को अनित्यता का यह अनुचिन्तन और अनित्यता का अनुभव होता है, उसमें क्रोध आने का अवकाश नहीं रहता । जिसकी चेतना में यह बात जम गई कि संयोग अनित्य है, पदार्थ नश्वर है, तब पदार्थ के चले जाने पर वह दुःखी नहीं होता ।
हमारे व्यावहारिक जीवन में अनित्य अनुप्रेक्षा का बहुत बड़ा महत्त्व है । जिस व्यक्ति के चित्त में यह संस्कार पुष्ट बन जाता है कि सब पदार्थ अनित्य है, फिर उस व्यक्ति के मन से विवाद बढ़ने वाली बात समाप्त हो जाती है। उसकी मानसिक विकृतियां कम हो जाती हैं। बहुत सारी पीड़ा जो व्यर्थ की भोगनी पड़ती है, वह समाप्त हो जाती है।
यह कोई तत्त्वज्ञान की बात नहीं है, अनुभव में उतारने की बात है। अनुप्रेक्षा करने वाला व्यक्ति घटना को जान लेता है भोगता नहीं। नहीं करने वाला व्यक्ति जानता नहीं, भोगता है। घटना को जानने वाला
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