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प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
ना। सविषय ध्यान
जाना।
१५६ धारणा करनी है, उसके प्रति तन्मय और एकाग्र हो जाना। सविषय भी यही है। विषय के प्रति या ध्येय के प्रति तन्मय और एकाग्र हो जा जप, भावना, धारणा और सविषय ध्यान-चारों एक कोटि के हैं। इस तात्पर्य-भेद नहीं है, नाम-भेद है।
भावना नौका है। भगवान् महावीर ने कहा-जिसकी आत्मा भावना-योग से विशुद्ध होती है, वह जल में नौका की तरह है। वह जब चाहे पार पहुंच सकती है। अब इस नौका का उपयोग कैसे हो ? वह प्रश्न शेष रहता है। भावना से भावित होना आवश्यक होता है। आप भावित नहीं होते तब तक वह स्थिति नहीं बनती। आगमों में 'भावितात्मा' शब्द आता है। भावितात्मा होने के बाद जो होना होता है, वह हो जाता है। यह सारा एकाग्रता का चमत्कार है। हम जो भी होना चाहते हैं, हो जाते हैं। जो घटित करना चाहते हैं, वह घटित हो जाता है। जिस रूप में मन को बदलना चाहते हैं, बदल लेते हैं। मन एक आकार का होता है। उसमें असंख्य पर्याय हैं। वह भिन्न-भिन्न आकारों में बदलता है। हम जैसा चाहते हैं, उसी प्रकार का आकार वह लेना शुरू कर देता है। यह मन की विशेषता है। तन्मयता और एकाग्रता के साथ हमने जो भावना की, वैसा ही होना होता है। उसमें कोई अन्तर नहीं आता। प्रश्न है एकाग्रता का, स्थिरता का। मन बदलता है, तो साथ-साथ शरीर भी बदलता है। स्व-सम्मोहन का प्रयोग, ऑटोसजेशन, अपने आपको सूचना देना, यह अपने आप भावना के द्वारा सम्मोहित हो जाता है। शरीर-प्रेक्षा के द्वारा शरीर के भीतर देखना, फिर संकल्प-शक्ति और भावना के प्रयोग द्वारा बदलने की भावना को अवचेतन मन तक पहुंचा देना। यह है रूपांतरण की प्रक्रिया ।
प्रत्येक कोशिका में ज्ञान-केन्द्र है। प्रत्येक कोशिका में प्रकाश-केन्द्र है, बिजली का कारखाना है। हर कोशिका का अपना एक कारखाना है विद्यत का, शक्ति का। वे कोशिकाएं अपने ढंग से काम करती हैं। उनको बदलना है, उनको नया जन्म देना है, उनको नया रास्ता देना है, तो आपकी अपनी भावना को उन तक पहुंचना होगा।
जब तक हमारी भावना उन तक नहीं पहुंचती तब तक हम नहीं बदल सकते। उदाहरण लें-एक आदमी अपनी क्रोध की आदत को बदलना चाहता है। संकल्प करता है-मैं क्रोध नहीं करूंगा। बार-बार संकल्प करता है, पर सफल नहीं होता। संकल्प तो करता है, पर गुस्सा वैसे ही आ जाता है। इससे तो ऐसा लगता है कि यह प्रयोग सार्थक नहा
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