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प्रक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग
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कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात. परिणामोऽयमात्मनः ।
स्फटिकस्यैव तत्राय लेश्या-शब्दः प्रवर्तते ।। इस प्रसिद्ध श्लोक की ध्वनि यह है-कृष्ण आदि लेश्या के पदगल जैसे होते हैं वैसे ही मानसिक परिणति होती है।
दूसरी धारा यह है-कषाय की मंदता से अध्यवसाय की शुद्धि होती है और अध्यवसाय की शुद्धि से लेश्या की शुद्धि होती है।
पांच आस्रवों में प्रवृत्त मनुष्य कृष्ण लेश्या में परिणत होता है। अर्थात उसकी आणविक आभा (पर्यावरण) कृष्ण होती है। मनुस्मृति में सत्त्व, रजस् और तमस् के जो लक्षण और कार्य बतलाए गए हैं, वे लेश्या के लक्षणों से तुलनीय हैं। लेश्या तंत्र-ग्रंथि तंत्र+क्रिया तंत्र
____ अध्यवसाय के अनेक स्पन्दन अनेक दिशाओं में आगे बढ़ते हैं। वे चित्त पर उतरते हैं। उनकी एक धारा है-भाव की धारा । अध्यवसाय की यह धारा जो रंग से प्रभावित होती है, रंग के स्पन्दनों के साथ जुड़कर भावों का निर्माण करती है, वह है हमारा भाव-तंत्र या लेश्या-तंत्र। जितने भी अच्छे या बुरे भाव हैं, वे सारे इनके द्वारा ही निर्मित होते हैं।
लेश्या-तंत्र हमारे संचित कर्म या संस्कारों का झरना है। कर्म के इस प्रवाह का बाहर आने का माध्यम है-हमारा अन्तःस्रावी ग्रन्थितंत्र (Endocrine System)। जब लेश्या से भावित अध्यवसाय आगे बढ़ते हैं, तब ये प्रभावित करते हैं, हमारे अन्तःस्रावी ग्रन्थि-तंत्र को। इन ग्रन्थियों के स्राव ही हमारे कर्मों के अनुभाग यानी विपाक का परिणमन है। इस प्रकार पूर्व संचित कर्म का अनुभाग रसायन बनकर ग्रन्थितंत्र के माध्यम से हार्मोन के रूप में प्रगट होता है। ये हार्मोन रक्त-संचार तंत्र के द्वारा नाड़ी-तंत्र और मस्तिष्क के सहयोग से हमारे अन्तर्भाव, चिन्तन, वाणी, आचार और व्यवहार को संचालित और नियंत्रित करते हैं। इस तरह ग्रन्थि-तंत्र हमारे सूक्ष्म अध्यवसाय-तंत्र और स्थूल शरीर के बीच "ट्रान्सफोर्मर" (परिवर्तक) का काम करता है। अध्यवसाय की अपेक्षा यह स्थूल है और शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म है। यही हमारे चैतन्य और शरीर के बीच की कड़ी है जो हमारी चेतना के अति सूक्ष्म और अमूर्त आदेशों को भौतिक स्तर पर परिवर्तित कर देता है और उसे मन एवं स्थूल शरीर तक पहुंचाता है।
मन, वाणी और शरीर-ये तीनों क्रिया-तंत्र (योग-तंत्र) के अंग हैं, क्रियान्विति के साधन हैं, ज्ञान के साधन नहीं। ज्ञान-तंत्र चित्त-तंत्र तक
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