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चैतन्य केन्द्र-प्रेक्षा अन्तःस्रावी ग्रन्थि-तन्त्र
ज्यों ही हम अस्तित्व के द्वैत को स्वीकार करते हैं. हमें यह भी
करना पडेगा कि भौतिक (स्थूल) शरीर और अभौतिक (सूक्ष्म) आत्मा के बीच में परस्पर संचार-व्यवहार के लिए कोई संचार-माध्यम की
श्यकता होगी। अर्थात् शरीर के भीतर ही कोई ऐसी अन्तरनिर्मित लावस्था होनी चाहिए. जिसके माध्यम से हमारा सूक्ष्म चेतन-तत्व अपनी प्राक्ति और प्रभुत्व को क्रियान्वित कर स्थूल भौतिक (शारीरिक) अवयवों-अस्थि, मांस और जैविक रसायनों का नियन्त्रण/नियमन कर सके। इस व्यवस्था में हमारी चेतना की अति सूक्ष्म और अमूर्त अभिव्यक्तियों के स्थलीकरण की तथा अभौतिक आदेशों की भौतिक स्तर पर क्रियान्विति की क्षमता होनी चाहिए। यह आन्तरिक संचार-माध्यम और कोई नहीं, अपितु हमारे शरीर का अन्तःस्रावी ग्रन्थि-तन्त्र है जो हमारे अस्तित्व के दोनों स्तरों-सूक्ष्म चेतना तथा स्थूल भौतिक शरीर के बीच कम्प्यूटर या परिवर्तक (ट्रांसफार्मर) का कार्य करता है। इसके लिए वे हार्मोन नामक रासायनिक पदार्थों का उत्पादन एवं प्रसारण करता है। चैतन्य-केन्द्र और ग्रन्थियां
दार्शनिक, वैज्ञानिक और चिकित्सक-सभी एकमत से यह बात कहते हैं कि व्यक्ति की भावधारा और मनोदशाओं के साथ इन अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का गहरा सम्बन्ध है।
डॉ. एम. डब्ल्यू. काप (Kapp), एम. डी., ने अपनी पुस्तक "GlandsOur Invisible Guardians" में लिखा है-"हमारे भीतर जो ग्रन्थियां हैं, वे क्रोध, कलह, ईर्ष्या, भय, द्वेष आदि के कारण विकृत बनती हैं। जब ये अनिष्ट भावनाएं जागती हैं, तब एड्रीनल ग्लैण्ड को अतिरिक्त काम करना पड़ता है। वह थक जाती है। और-और ग्रन्थियां भी अतिश्रम से थक कर श्लथ हो जाती हैं।
जब-जब हमारे संस्कार के कारण आवेग जागते हैं, तब-तब उन ग्रन्थियों पर अतिरिक्त भार पड़ता है। वे अस्वाभाविक रूप से काम करने लगती हैं। स्राव अधिक होता है। यह अतिरिक्त स्राव अनेक विकृतियां पदा करता है। ग्रन्थियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम इन आवेगों और भावनाओं को नियन्त्रित करें। आवेगों का समझदारी से समेटें और ग्रन्थियों पर अधिक भार न आने दें।
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