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Samādhitantram
यदभावे सुषुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थितः पुनः । अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥२४॥
अन्वयार्थ - ( यत् अभावे) जिस शुद्धात्मस्वरूप के अभाव में (अहं) मैं (सुषुप्तः) अब तक गाढ़ निद्रा में पड़ा रहा हूँ - मुझे पदार्थों का यथार्थ परिज्ञान न हो सका (पुनः) और (यत् भावे) जिस शुद्धात्मस्वरूप की उपलब्धि होने पर मैं (व्युत्थितः) जागृत हुआ हूँ - यथावत् वस्तुस्वरूप को जानने लगा हूँ। (तत्) वह शुद्धात्मस्वरूप (अतीन्द्रियम् ) इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है (अनिर्देश्यं) वचनों के भी अगोचर है - कहा नहीं जाता। वह तो (स्वसंवेद्यम् ) स्वयं के द्वारा स्वयं के अनुभव करने योग्य है। उसी शुद्धात्मस्वरूप ( अहं अस्मि) मैं हूँ।
Devoid of the experience of pure soul-consciousness, I was under a spell of deep sleep – spiritual ignorance. Now I am awake to that experience. That experience of pure soul-consciousness can neither be got through the senses nor expressed in words. That must be experienced by the Self through the Self. I am pure soulconsciousness.
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