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________________ 1/4-5 इत्यचो द्यम् ; अर्थपरिच्छित्तिविशेषसद्भावे तत्प्रवृत्तेरप्यभ्युपगमात्। प्रथमप्रमाणप्रतिपन्ने हि वस्तुन्याकारविशेष प्रतिपद्यमानं प्रमाणान्तरम् अपूर्वार्थमेव वृक्षो न्यग्रोध इत्यादिवत्। एतदेवाह अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥4॥ 36. स्वरूपेणाकारविशेषरूपतया वानवगतोऽखिलोप्यपूर्वार्थः। दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् ॥5॥ लिए वहाँ दूसरा प्रमाण प्रवृत्त होता है तो वह विषय उसके लिये अपूर्वार्थ ही है; जैसे प्रथम प्रमाण ने इतना ही जाना कि यह वृक्ष है, फिर दूसरे प्रमाण ने उसे यह वृक्ष वट का है ऐसा विशेष रूप से जाना तो वह ज्ञान प्रमाण ही कहा जायेगा, क्योंकि द्वितीय ज्ञान के विषय को प्रथम ज्ञान ने नहीं जाना था, अत: वृक्ष सामान्य को जानने वाले ज्ञान की अपेक्षा वह वृक्ष को जानने वाले ज्ञान के लिए वह वट वृक्ष अपूर्वार्थ ही है। इसलिए आचार्य माणिक्यनन्दि ने आगे सूत्र कहा है अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥4॥ सूत्रार्थ- जिस अर्थ का किसी यथार्थग्राही प्रमाण से अभी तक निश्चय नहीं हुआ है उसे अपूर्वार्थ कहते हैं। इस परिभाषा को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जिस अर्थ का स्वरूप ज्ञात न हो अथवा जिसका आकार विशेष ज्ञात न हो उसे अपूर्वार्थ कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अनिश्चित, अज्ञात, अनवगत और अप्रतिपन्न ये सभी शब्द पर्यायवाची हैं। इस सूत्र में अपूर्व शब्द अर्थ का विशेषण है। 36. प्रभाचन्द्राचार्य इस सूत्र की व्याख्या में कहते हैं कि जो स्वरूप से अथवा विशेष रूप से निश्चित नहीं है वह अखिल पदार्थ अपूर्वार्थ है। अपूर्वार्थ का एक दूसरा लक्षण भी आचार्य माणिक्यनन्दि ने किया है दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् ॥5॥ 34:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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