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नोत्तरोत्तरज्ञानानां तदुपयोगि (त्वम्), तद्विशेषांशप्रदर्शकत्वेन तु तत् तेषामुपपन्नमेव। प्रवृत्तिमूला तूपादेयार्थप्राप्तिर्न प्रमाणाधीनातस्याः पुरुषेच्छाधीनप्रवृत्तिप्रभवत्वात्।
25. न च प्रवृत्त्यभावे प्रमाणस्यार्थप्रदर्शकत्वलक्षणव्यापाराभावो वाच्यः, प्रतीतिविरोधात्। न खलु चन्द्रार्कादिविषयं प्रत्यक्षमप्रवर्तकत्वान्न तत्प्रदर्शकमिति लोके प्रतीतिः। निर्विकल्पप्रमाणनिरासः
26. ननु साधूक्तं प्रमाणस्याज्ञानरूपतापनोदार्थं ज्ञानविशेषणमस्माकमपीष्टत्वात्, तद्धि समर्थयमानैः साहाय्यमनुष्ठितम्। तत्तु किञ्चिन्निर्विकल्पक
25. शंका- प्रवृत्ति रूप प्राप्ति प्रमाण में न होने के कारण उसमें अर्थ प्रदर्शन रूप प्राप्ति भी नहीं हो सकेगी?
समाधान- नहीं ऐसा नहीं है। ऐसा मानने में विरोध है। जैसे हमें चन्द्र-सूर्य आदि का प्रत्यक्ष ज्ञान तो होता है किन्तु उनका वहाँ ग्रहण (प्राप्ति) नहीं होता। ज्ञान मात्र उनका प्रदर्शक होता है और इतने मात्र से वह ज्ञान लोक में प्रमाण माना जाता है।
हमें यह समझना चाहिए कि प्रमाण का कार्य मात्र पदार्थों की हेयोपादेयता बतलाना है न कि उसमें प्रवृत्ति कराना या उससे निवृत्ति कराना। यह बात तो ज्ञाता की इच्छा पर निर्भर करती है कि वह उससे निवृत्त होता है या उसमें प्रवृत्त।
यदि प्रमाण प्रवृत्ति या निवृत्ति कराता होता तो जगत् में कभी भी कोई गलत कार्य नहीं होते क्योंकि गलत कार्य से हानि होती है यह ज्ञान तो प्रमाण से हो ही चुकता है फिर भी ज्ञाता गलत कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। अतः प्रमाण अर्थ के हित-अहित का ज्ञान मात्र कराता है उसमें प्रवृत्त या उससे निवृत्त व्यक्ति (ज्ञाता) अपनी इच्छा से होता है। निर्विकल्पप्रमाण समीक्षा तथा व्यवसायात्मक विशेषण विमर्श
26. बौद्धों का कहना है कि जैनों ने प्रमाण पद के साथ जो ज्ञान विशेषण दिया है वह तो हमें मान्य है क्योंकि वह अज्ञान का विरोधी है
प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 27