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संयोगो विद्यमानोऽपि प्रमित्युत्पादकः, संयुक्तसमवायो वा रूपादिवच्छब्दरसादौ, संयुक्तसमवेतसमवायो वा रूपत्ववच्छब्दत्वादौ। तद्भावेऽपि च विशेषणज्ञानाद्विशेष्यप्रमितेः सद्भावोपगमात्। योग्यताभ्युपगमे सैवास्तु किमनेनान्तर्गडुना?
8. योग्यता च शक्तिः, प्रतिपत्तुः प्रतिबन्धापायो वा? शक्तिश्चेत्; किमतीन्द्रिया, सहकारिसान्निध्यलक्षणा वा? न तावदतीन्द्रिया; अनभ्युपगमात्। नापि सहकारिसान्निध्यलक्षणा; कारकसाकल्यपक्षोक्ताशेषदोषानुषङ्गात्। है। किन्तु वह संयोग रूप सन्निकर्ष प्रमिति को पैदा नहीं करता अर्थात् जैसे आँख से घर का ज्ञान होता है वैसे ही आकाश का ज्ञान नहीं होता। उसी प्रकार संयुक्त समवाय नामक सन्निकर्षरूप सम्बन्ध से घर में रूप के समान ही रहे हुए शब्द, रस का भी ज्ञान क्यों नहीं होता? तथा संयुक्त समवेत समवाय सम्बन्ध से रहने वाले रसत्व आदि का ज्ञान भी क्यों नहीं होता? जबकि आपने माना है कि सन्निकर्ष के अभाव में भी विशेषण ज्ञान से विशेष्य की प्रमिति होती है।
वैशेषिक- घर की तरह आकाश के साथ भी सन्निकर्ष तो है फिर भी जहाँ घटादि में योग्यता होती है वहीं पर प्रमिति उत्पन्न होती है।
जैन- यदि यही मानना है तो योग्यता को ही आप स्वीकार क्यों नहीं कर लेते? आन्तरिक घाव की भाँति सन्निकर्ष को क्यों सहन कर रहे हैं?
8. अब यहाँ प्रश्न उठता है कि योग्यता क्या चीज है? क्या योग्यता का मतलब शक्ति से है अथवा ज्ञाता के प्रतिबन्धक कर्म का अभाव रूप 'प्रतिपत्ता' का नाम योग्यता है? (i) शक्ति ही योग्यता है
यदि ऐसा है तो प्रश्न उठता है कि वह कैसी है? क्या वह अतीन्द्रिय है? या सहकारी की निकटता होने रूप है? अतीन्द्रिय शक्ति तो स्वयं आपके यहाँ मान्य ही नहीं है। यदि सहकारी सान्निध्य रूप मानेंगे तो उसमें भी वे सभी दोष आ जायेंगे जो कारकसाकल्यवाद में दिखाये हैं।
प्रमेयकमलमार्तण्डसारः: 17