SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5. अत्र प्रमाणशब्दः कर्तृकरणभावसाधनः-द्रव्यपर्याययोर्भदाऽभेदात्मकत्वात् स्वातन्त्र्यसाधकतमत्वादिविवक्षापेक्षयातद्भा- वाऽविरोधात्। 6. तत्र क्षयोपशमविशेषवशात्-'स्वपरप्रमेयस्वरूपं प्रमिमीते यथावज्जानाति' इति प्रमाणमात्मा, स्वपरग्रहणपरिण तस्यापरतन्त्र- स्याऽऽत्मन एव हि कर्तृसाधनप्रमाणशब्देनाभिधानं, स्वातन्त्र्येण विवक्षितत्वात् स्वपरप्रकाशात्मकस्य प्रदीपादेः प्रकाशाभिधानवत्। 5. यहाँ जो प्रमाणपद है वह तीन तरह से निष्पन्न है1. कर्तृसाधन 2. करणसाधन 3. भावसाधन। यह इसलिए क्योंकि द्रव्य और पर्याय दोनों ही आपस में कथञ्चित् भेदाभेदात्मक होते हैं। निम्नलिखित तीन प्रकार से प्रमाण शब्द बनने में कोई विरोध नहीं आता- 1. स्वातन्त्र्य विवक्षा 2. साधकतम-विवक्षा 3. भावविवक्षा। 1. स्वातन्त्र्य विवक्षा 6. यदि कर्तसाधन स्वातन्त्र्य विवक्षा से प्रमाण शब्द की निष्पत्ति करें तो कहा जायेगा कि ज्ञानावरणादि कर्म का क्षयोपशम विशेष होने से अपने को और पररूप प्रमेय को जैसा का तैसा यथावत् जो जानता है वह प्रमाण है। 'प्रमिमीते अर्थात् जानाति इति प्रमाणं' यह कर्तसाधन है। अर्थात् अपने और पर के ग्रहण करने में परिणत हुआ जो जीव है वही प्रमाण है। जैसे स्व और पर को प्रकाशित करने वाला दीपक स्व-पर को प्रकाशित करता है-यह स्वातन्त्र्य विवक्षा से कहा जाता है। कर्तृसाधन प्रमाण शब्द के द्वारा ही ऐसा विवेचन सम्भव है। 2. साधकतम विवक्षा इस विवक्षा से 'प्रमीयते अनेन इति प्रमाणं करणसाधनं' इस प्रकार प्रमाण का अर्थ होता है। 3. भावविवक्षा ___ भाव विवक्षा होने पर 'प्रमिति मात्रं वा प्रमाणं' इस प्रकार प्रमाण का अर्थ हो जाता है। 7. साधकतमत्वादि इन विवक्षाओं के अनुसार 'जाना जाये 6:: प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy