________________ 7/1 प्रतीदं शास्त्रं विहितम्। 30. यस्तु शास्त्रान्तरद्वारेणावगतहेयोपादेयस्वरूपो न तं प्रतीत्यर्थ इति। इति श्रीप्रभाचन्द्रविरचिते प्रमेयकमलमार्तण्डे परीक्षामुखालङ्कारे सप्तमपरिच्छेदः समाप्तः। "मादृशो बालः" पद है उनमें मादृशोऽबालः ऐसा नञ् समासान्त पद मानकर इस तरह अर्थ कर सकते हैं कि जो मेरे समान अबाल-महान् बुद्धिशाली हैं उनके हेयोपादेयतत्त्व ज्ञानार्थ इस शास्त्र को मैंने रचा है। जैसे परीक्षादक्ष पुरुष परीक्षा में दक्ष कराने के लिए विशिष्ट शास्त्र रचते प्रश्न- महाप्राज्ञ पुरुष तो आपके समान स्वतः ही उक्त तत्त्वज्ञान युक्त होते हैं अतः उनके लिये शास्त्र रचना व्यर्थ ही है? उत्तर- ऐसा नहीं कहना, इस शास्त्र के ग्रहण, [वाचन आदि] में महाप्रज्ञा का सद्भाव विवक्षित है, अर्थात् जैसे मैं शास्त्र करने में प्राज्ञ हूँ और हेयोपादेयतत्त्व का ज्ञाता हूँ वैसे इन तत्त्वों के ग्रहण में अथवा इस ग्रन्थ के वाचनादि में जो प्राज्ञ पुरुष हैं उनके प्रति यह शास्त्र रचा गया 30. जो शास्त्रान्तर से हेयोपादेय तत्त्वों को जान चुका है उनके प्रति इस ग्रंथ को नहीं रचा है। इस प्रकार माणिक्यनन्दी आचार्य द्वारा विरचित परीक्षामुख नामक ग्रन्थ के अलंकार स्वरूप प्रमेयकमलमार्तण्ड नामक टीका ग्रन्थ में षष्ठ परिच्छेद जो कि श्री प्रभाचन्द्र आचार्य द्वारा रचित है, तथा हमारे अनुसार सप्तम परिच्छेद समाप्त हुआ। प्रमेयकमलमार्तण्डसार:: 331