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________________ 7/1 सप्तभङ्गविमर्शः 20. कथं पुनर्नयसप्तभनयाः प्रवृत्तिरिति चेत्? 'प्रतिपर्याय वस्तुन्येकत्राविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पनायाः' इति ब्रूमः। तथाहि-सङ्कल्पमात्रग्राहिणो नैगमस्याश्रयणाद्विधिकल्पना, प्रस्थादिक कल्पनामात्रम्-'प्रस्थादि स्यादस्ति' इति। संग्रहाश्रयणात्तु प्रतिषेधकल्पना; न प्रस्थादि सङ्कल्पमात्रम्प्रस्थादिसन्मात्रस्य तथाप्रतीतेरसतः प्रतीतिविरोधादिति। व्यवहाराश्रयणाद्वा द्रव्यस्य पर्यायस्य वा प्रस्थादिप्रतीतिः तद्विपरीतस्याऽसतः सतो वा प्रत्येतुमशक्तेः। ऋजुसूत्राश्रयणाद्वा पर्यायमात्रस्य प्रस्थादित्वेन प्रतीतिः, अन्यथा प्रतीत्यनुपपत्तेः। शब्दाश्रयणाद्वा कालादिभिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वम्, अन्यथातिप्रसङ्गात्। सप्तभङ्ग-विमर्श 20. प्रश्न होता है कि नयों के सप्तभंगों की प्रवृत्ति किस प्रकार होती है? इसके समाधान में आचार्य प्रभाचन्द्र कहते हैं कि एक वस्तु में अविरोधरूप से प्रति पर्याय के आश्रय से विधि और निषेध की कल्पना स्वरूप सप्तभङ्गी है या सप्तभङ्गी की प्रवृत्ति है। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुये आचार्य प्रभाचन्द्र समझाते हैं कि 'संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाले नैगम नय के आश्रय से विधि (अस्ति) की कल्पना करना, कल्पना में स्थित जो प्रस्थ (माप विशेष) है उसको 'प्रस्थादि स्याद् अस्ति' ऐसा कहना और संग्रह का आश्रय लेकर प्रतिषेध (नास्ति) की कल्पना करना, जैसे प्रस्थादि नहीं है ऐसा कहना। संग्रह कहेगा कि प्रस्थादि संकल्प मात्र नहीं होता, क्योंकि सत् रूप प्रस्थादि में प्रस्थपने की प्रतीति होगी। असत् की प्रतीति होने में विरोध है। इस प्रकार नैगम द्वारा गृहीत जो विधिरूप संकल्प में स्थित 320:: प्रमेयकमलमार्तण्डसार:
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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