SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो जिणाणं श्रीमन्माणिक्यनन्द्याचार्यविरचितपरीक्षामुखसूत्रस्यालङ्कारभूतः प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः मूलग्रन्थकर्त्ता - प्रभाचन्द्राचार्यः ( अनेकान्तकुमारजैनकृतसार-संक्षेप: ) श्रीस्याद्वादविद्यायै नमः । सिद्धेर्धाम महारिमोहहननं कीर्तेः परं मन्दिरम्, मिथ्यात्वप्रतिपक्षमक्षयसुखं संशीतिविध्वंसनम्। सर्वप्राणिहितं प्रभेन्दुभवनं सिद्धं प्रमालक्षणम्, संतश्चेतसि चिन्तयन्तु सुधियः श्रीवर्धमानं जिनम्॥1॥ आचार्य माणिक्यनन्दि द्वारा रचित जैन न्याय के प्रथम सूत्रग्रन्थ 'परीक्षामुखसूत्र' के टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र अपने इस प्रमेयकमल मार्तण्ड टीका ग्रन्थ के आद्य मंगलाचरण में स्याद्वादविद्या को नमस्कार करते हुये सर्वप्रथम अनेक विशेषणों से युक्त अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान ( महावीर) की स्तुति स्वरूप मंगल श्लोक कहते हैं अर्थ-जो सिद्धि अर्थात् मोक्ष के धाम (स्थान) हैं, मोहरूपी महाशत्रु को नष्ट करने वाले हैं, कीर्ति जहाँ पर प्रतिष्ठित है, ऐसे श्रेष्ठ मन्दिर स्वरूप हैं, मिथ्यात्व के विरोधी हैं, कभी नष्ट न होने वाले ऐसे अतीन्द्रिय अक्षय सुख को भोगने वाले हैं, संशय का नाश करने वाले हैं, सभी जीवों के लिए हितकारी हैं, चन्द्रमा की प्रभा के समान कान्ति से युक्त हैं, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का नाश करने वाले सिद्ध हैं, ज्ञान लक्षण वाले अर्थात् केवलज्ञान के धारक हैं- ऐसे अंतिम तीर्थङ्कर श्री वर्धमान महावीर जिनेन्द्र भगवान का सज्जन लोग चिन्तवन अर्थात् ध्यान करें॥1॥ प्रमेयकमलमार्त्तण्डसारः: 1
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy