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________________ 7/1 प्रमेयकमलमार्तण्डसार: 329 25. परीक्षा तर्कः, परि समन्तादशेषविशेषत ईक्षणं यत्रार्थानामिति व्युत्पत्तेः। तस्या मुखं तद्व्युत्पत्तौ प्रवेशार्थिनां प्रवेशद्वारं शास्त्रमिदं व्यधामहं विहितवानस्मि। 26. पुनस्तद्विशेषणमादर्शमित्याद्याह। आदर्शधर्मसद्भावादिदमप्यादर्शः। यथैव ह्यादर्शः शरीरालङ्कारार्थिनां तन्मुखमण्डनादिकं विरूपकं हेयत्वेन सुरूपक चोपादेयत्वेन सुस्पष्टमादर्शयति तथेदमपि शास्त्रं हेयोपादेयतत्त्वे तथात्वेन प्रस्पष्टमादर्शयतीत्यादर्श इत्यभिधीयते। 27. तदीदृशं शास्त्रं किमर्थं विहितवान् भवानित्याह। संविदे। कस्येत्याह मादृशः। कीदृशो भवान् यत्सदृशस्य संवित्त्यर्थं शास्त्रमिदमारभ्यते इत्याह-बालः। एतदुक्तं भवति-यो मत्सदृशोऽल्पप्रज्ञस्तस्य हेयोपादेयतत्त्वसंविदे (दर्पण) के समान इस परीक्षामुख ग्रन्थ को मेरे जैसे बालक ने परीक्षा दक्ष के समान रचना की है। 25. तर्क को परीक्षा कहते हैं, परि-समंतात् सब ओर से विशेषतया अर्थों का जहाँ 'ईक्षणं' देखना हो उसे परीक्षा-परि-ईक्षा-परीक्षा कहते हैं। उस परीक्षा का मुख अर्थात् परीक्षा को जानने के लिए उसमें प्रवेश करने के इच्छुक पुरुषों के लिए मुख-प्रवेशद्वार सदृश है ऐसे इस शास्त्र को मैंने 'व्यधाम्' रचा है। 26. इस परीक्षा मुख शास्त्र का विशेषण कहते हैं- आदर्श अर्थात् दर्पण उसके धर्म का सद्भाव होने से यह ग्रंथ आदर्श कहलाता है अर्थात् जिस प्रकार आदर्श शरीर को अलंकृत करने के इच्छुक जनों को उनके मुख के सजावट में जो विरूपक (कुरूप) है उसको हेमरूप से और सुरूपक है उसको उपादेयरूप से साफ स्पष्ट दिखा देता है उसी प्रकार यह परीक्षामुख शास्त्र भी हेय और उपादेयतत्त्व को स्पष्ट दिखा देता है इसलिए इसे आदर्श कहते हैं। 27. इस प्रकार के शास्त्र को आपने किसलिये रचा? ऐसे प्रश्न के उत्तर में कहते हैं 'संविदे' सुज्ञान के लिये रचा है। किसके ज्ञान के लिये तो 'मादृशः' मुझ जैसे के ज्ञान के लिये। आप कैसे हैं जिससे कि
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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