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________________ 324 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 7/1 तदनभ्युपगमे वस्तुनो वस्तुत्वायोगात् खरशृङ्गवत्। तथा कथञ्चिदसत्त्वं तद्धर्म एव; स्वरूपादिभिरिव पररूपादिभिरप्यस्याऽसत्त्वानिष्टौ प्रतिनियतस्वरूपाऽसंभवाद्वस्तुप्रतिनियमविरोधः स्यात्। एतेन क्रमार्पितोभयत्वादीनां वस्तुधर्मत्वं प्रतिपादितं प्रतिपत्तव्यम्। तदभावे क्रमेण सदसत्त्वविकल्पशब्दव्यवहारविरोधात्, सहाऽवक्तव्यत्वोपलक्षितोत्तरधर्मत्रयविकल्पस्य शब्दव्यवहारस्य चासत्त्वप्रसङ्गात्। न चामी व्यवहारा निर्विषया एव; वस्तुप्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्राप्तिनिश्चयात् तथाविधरूपादिव्यवहारवत्। उत्तर- संशय विषयक वस्तु के धर्म सात प्रकार के होने से संशय भी सात प्रकार का होता है। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हैं- 'अस्तित्त्व वस्तु का धर्म है। यदि इस अस्तित्त्व को वस्तु का धर्म न माना जाय तो वस्तु का वस्तुत्व ही समाप्त होगा- गधे के सींग की तरह। तथा वस्तु का नास्तित्त्व धर्म भी कथञ्चित् है क्योंकि यदि वस्तु में नास्तित्त्व धर्म न मानें तो उस वस्तु का प्रतिनियत स्वरूप असम्भव होगा, अर्थात् जैसे स्वरूपादि की अपेक्षा नास्तित्त्व धर्म अनिष्ट है वैसे पर रूपादि की अपेक्षा भी नास्तित्त्व धर्म को अनिष्ट किया जाय तो प्रतिनियत स्वरूप न रहने से वस्तु का प्रतिनियत ही विघटित होगा। जैसे वस्तु में अस्ति और नास्ति धर्म सिद्ध होते हैं वैसे क्रमार्पित उभयत्व आदि शेष धर्म भी वस्तु धर्म रूप है ऐसा प्रतिपादन हुआ समझना। अर्थात् स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य आदि धर्म भी वस्तु में हैं। अस्ति-नास्ति का अभाव करें तो क्रम से सत्त्व और असत्त्व शब्द का व्यवहार विरुद्ध होगा। तथा युगपत् की अपेक्षा अवक्तव्य आदि से उपलक्षित स्यात् अवक्तव्य एवं उत्तर के तीन धर्म रूप शब्द व्यवहार भी समाप्त होगा। स्यात् अस्ति नास्ति, स्याद् अवक्तव्य आदि व्यवहार निर्विषय-विषय रहित काल्पनिक भी नहीं कहे जा सकते, क्योंकि इन शब्द व्यवहारों से वस्तु की प्रतिपत्ति (ज्ञान) वस्तु की प्रवृत्ति (वस्तु को लेने आदि के लिए प्रवृत्त होना) एवं वस्तु की प्राप्ति होती है। जैसे कि अन्यत्र प्रतिपत्ति
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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