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________________ 6/59-60 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 279 तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे प्रमाणान्तरत्वम् अप्रमाणस्य अव्यवस्थापकत्वात् ॥59॥ कुत एतदित्याह अप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात्। प्रतिभासादिभेदस्य च भेदकत्वादिति ॥60॥ तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे प्रमाणान्तरत्वम् अप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् ।।59॥ सूत्रार्थ- बौद्ध यदि व्याप्ति को तर्क प्रमाण विषय करता हैऐसा माने अर्थात् तर्क प्रमाण द्वारा व्याप्ति का [साध्य साधन का अविनाभाव] ग्रहण होता है- ऐसा माने तो उस तर्क प्रमाण को प्रत्यक्षादि से पृथक् स्वीकार करना ही होगा और ऐसा मानने पर उन बौद्धों की दो प्रमाण संख्या कहाँ रही? अर्थात् नहीं रहती। यदि उस तर्क को स्वीकार करके अप्रमाण बताया जाय तो उस अप्रमाणभूत तर्क द्वारा व्याप्ति की सिद्धि हो नहीं सकती क्योंकि जो अप्रमाण होता है वह वस्तु व्यवस्था नहीं कर सकता ऐसा सर्व मान्य नियम है। प्रतिभासादिभेदस्य च भेदकत्वात् ॥60॥ सूत्रार्थ- कोई कहे कि अनुमान या तर्क आदि को प्रामाणिक तो मान लें किन्तु उन ज्ञानों का अन्तर्भाव तो प्रत्यक्षादि में ही हो जायेगा? अतः इस कथन पर आचार्य कहते हैं कि प्रतिभास में भेद होने से पृथक् पृथक् प्रतीति आने से ही तो प्रमाणों में भेद स्थापित किया जाता है। जिस-जिस प्रतीति या ज्ञान से पृथक् पृथक् रूप से झलक आती है उस उस ज्ञान को भिन्न भिन्न प्रमाणरूप से स्वीकार करते हैं, प्रत्यक्षादि की प्रतीति से तर्क ज्ञान की प्रतीति पृथक या विलक्षण है क्योंकि प्रत्यक्षादि से व्याप्ति का ग्रहण नहीं होकर तर्क ज्ञान से व्याप्ति का ग्रहण होता है इसी से सिद्ध होता है कि तर्क भी एक पृथक् प्रमाण हैं, जैसे कि प्रत्यक्षादि ज्ञान विलक्षण प्रतीति वाले होने से पृथक्-पृथक् प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण, तर्क प्रमाण इत्यादि प्रमाणों में विभिन्न प्रतिभास है। इन प्रमाणों की सामग्री भी विभिन्न है इत्यादि
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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