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________________ 276 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 6/56-57 लोकायतिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परबुद्ध्यादेश्चासिद्धेः अतद्विषयत्वात् ॥56॥ कुतोऽसिद्धिरित्याह-अतद्विषयत्वात्। यथा चाध्यक्षस्य परलोकादिनिषेधादिरविषयस्तथा विस्तरतो द्वितीयपरिच्छेदे प्रतिपादितम्। अमुमेवार्थं समर्थयमानः सौगतादिपरिकल्पितां च संख्या निराकुर्वाण: सौगतेत्याद्याह सौगतसांख्ययोगप्राभाकरजैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्त्यभावैः एकैकाधिकैः व्याप्तिवत् ॥57॥ लौकायितकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परबुद्धयादेश्चासिद्धेः अतद्विषयत्वात् ॥56॥ सूत्रार्थ- लोकायित जो चार्वाक है वह एक प्रत्यक्ष मात्र को प्रमाण मानता है, यह एक प्रमाण संख्या ठीक नहीं है, क्योंकि एक प्रत्यक्ष से परलोक का निषेध करना, पर जीवों में ज्ञानादि को सिद्ध करना इत्यादि कार्य नहीं हो सकता। इसका भी कारण यह है कि प्रत्यक्ष प्रमाण परलोकादि को जानता ही नहीं उस ज्ञान की प्रवृत्ति परलोकादि परोक्ष वस्तु में न होकर केवल घट पट आदि प्रत्यक्ष वस्तु में ही हुआ करती हैं। चार्वाक एक ही प्रमाण मानते हैं, किन्तु उधर परलोकादि का निषेध करते हैं, सो परलोक नहीं है, सर्वज्ञ नहीं है, इत्यादि विषयों का निषेध करना अनुमानादि के अभाव में कैसे शक्य होगा? अर्थात् नहीं हो सकता, अतः एक एक प्रत्यक्ष मात्र को मानना संख्याभास है। प्रत्यक्ष का विषय परलोक आदि पदार्थ नहीं हो सकते प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा परलोक का निषेध करना अशक्य है। आगे इसी का समर्थन करते हुए बौद्ध आदि परवादी द्वारा परिकल्पित प्रमाण संख्या का निराकरण करते हैं सौगत-सांख्य-योग-प्राभाकर-जैमिनीयानां प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्त्यभावैः एकैकाधिकैः व्याप्तिवत् ।।57॥
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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