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________________ 262 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 6/36-38 करोतीत्यकिञ्चित्करोऽनर्थकः। यथा श्रावणः शब्दः शब्दत्वादिति ॥36।। न ह्यसौ स्वसाध्यं साधयति, तस्याध्यक्षादेव प्रसिद्धः। नापि साध्यान्तरम्; तत्रावृत्तेरित्यत आह किञ्चिदकरणात् ॥37॥ प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्येऽकिञ्चित्करोसौअनुष्णोऽग्निर्द्रव्यत्वादित्यादौ यथा किंचित्कर्तुमशक्यत्वात् ॥38॥ बाधित साध्य हो ऐसे साध्य के लिये प्रयुक्त हुआ हेतु अकिञ्चित्कर कहलाता है। जो साध्य पहले ही किसी अन्य प्रमाण से सिद्ध हो चुका हो, या किसी प्रत्यक्षादि से जिसमें बाधा आती हो ऐसे वस्तु को साध्य बनाकर उसमें जो हेतु दिया जाय तो वह अकिचित्कर माना जाता है, न किंचित् करोति इति अकिचित्करः अनर्थकः ऐसा व्युत्पत्यर्थ है। इसका उदाहरण देते हुए अगला सूत्र कहते हैं यथा श्रावणः शब्दः शब्दत्वात् ॥36॥ सूत्रार्थ- जैसे किसी ने कहा कि शब्द कर्णेन्द्रिय का विषय है, क्योंकि वह शब्दरूप है। यहाँ शब्दत्व हेतु स्वसाध्य को [श्रावणत्व का] कुछ भी सिद्ध नहीं करता, क्योंकि साध्य प्रत्यक्ष सिद्ध है अर्थात् शब्द कर्ण से प्रत्यक्ष सुनायी दे रहा है, उसे क्या कहना कि ये कर्ण से सुनायी देने वाला है? अन्य साध्य को भी सिद्ध नहीं करता, क्योंकि उसमें नहीं है, इसी को कहते हैं किञ्चिदकरणात् ॥37॥ सूत्रार्थ- यह शब्दत्व हेतु कुछ भी नहीं करता है। प्रत्यक्षादि से बाधित जो साध्य है उसमें भी यह हेतु कुछ नहीं करता ऐसा बतलाते यथा अनुष्णोग्निद्रव्यत्वादित्यादौ किंचित् कर्तुमशक्यत्वात् ॥38॥
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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