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________________ 244 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः 6/24 24. भागासिद्धस्याप्यविनाभावसद्भावाद्गमकत्वमेव। न खलु प्रयत्नान्तरीयकत्वमनित्यत्वमन्तरेण क्वापि दृश्यते। यावति च तत्प्रवर्त्तते तावत: शब्दस्यानित्यत्वं ततः प्रसिद्ध्यति, अन्यस्य त्वन्यतः कृतकत्वादेरिति। इत्यादि रूप जो श्री मणिक्यनन्दी गुरुदेव ने सूत्र सूचना की है उसका अर्थ यह नहीं है कि जो हेतु पक्ष में मौजूद नहीं है वह असिद्ध हेत्वाभास है किन्तु उसका अर्थ तो यह है कि साध्य के साथ जिसका अविनाभाव न हो वह असिद्ध हेत्वाभास है तथा दृष्टान्त और साध्य में जिसकी मौजूदगी नहीं हो वह असिद्ध हेत्वाभास है। 24. भागासिद्ध नामका जो हेत्वाभास कहा वह भी गलत है, क्योंकि पक्ष के एक भाग में हेतु के असिद्ध होने पर भी साध्य का अविनाभावी होकर गमक हो सकता है, भागासिद्ध हेतु का उदाहरण दिया था कि “अनित्यः शब्दः प्रयत्नानंतरीयकत्वात्" शब्द अनित्य है, क्योंकि वह प्रयत्न के अनन्तर पैदा होता है सो अनित्यत्व के बिना कोई भी वस्तु प्रयत्न से पैदा होती देखी नहीं जाती, अर्थात् प्रयत्नान्तरीयकत्वरूप हेतु अनित्यरूप साध्य का सदा अविनाभावी है, जो शब्द प्रयत्न से बनता है उसमें तो अनित्यपना प्रयत्न अनन्तरत्व हेतु से सिद्ध किया जाता है और जो शब्द प्रयत्न बिना होता है ऐसे मेघादि शब्द की अनित्यता को कृतकत्वादि हेतु से सिद्ध किया जाता है। अथवा प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु के प्रयोग से ही यह मालूम पड़ता है कि इस अनुमान में उसी शब्द को पक्ष बनाया है कि जो प्रयत्न के अनन्तर हुआ हो, इस तरह के पक्ष को बनाने से तो हेतु की उस पक्ष में सर्वत्र प्रवृति होगी ही फिर उसे भागासिद्ध कैसे कह सकते हैं? आचार्य के कथन का तात्पर्य यह है कि- असिद्ध हेत्वाभास के दो भेद है स्वरूपसिद्ध और सन्दिग्धासिद्ध इनमें से स्वरूपसिद्ध हेतु वह है जिसका स्वरूप असिद्ध है नैयायिक के यहाँ इस हेतु के आठ भेद माने हैं, विशस्वसिद्ध, विशेषणसिद्ध, आश्रयसिद्ध, आश्रयैकदेशासिद्ध, व्यर्थविशेष्यासिद्ध, व्यर्थविशेषणसिद्ध, व्यधिकरणसिद्ध, भागासिद्ध। आश्रयैकदेशासिद्ध और भागासिद्ध में यह अंतर है कि- आश्रय एक देश
SR No.034027
Book TitlePramey Kamal Marttandsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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