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242 प्रमेयकमलमार्तण्डसारः
6/24 सिद्धं भवत्यतिप्रसङ्गात्।
22. भागासिद्धो यथा-[अ] नित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्। व्यधिकरणासिद्धत्वं भागासिद्धत्वं च परप्रक्रियाप्रदर्शनमात्रं न वस्तुतो हेतुदोषः; व्यधिकरणस्यापि 'उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात्, उपरि वृष्टो देवोऽधः पूरदर्शनात्' इत्यादेर्गमकत्वप्रतीतेः। अविनाभावनिबन्धनो हि गम्यगमकभावः, न तु व्यधिकरणाव्यधिकरणनिबन्धनः 'स श्यामस्तत्पुत्रत्वात्, धवलः प्रासाद: काकस्य कार्यात्' इत्यादिवत्।
भागासिद्ध हेत्वाभास
22. जो पक्ष के एक भाग में असिद्ध हो उसे भागासिद्ध हेत्वाभास कहते हैं जैसे- शब्द अनित्य है क्योंकि प्रयत्न के अनन्तर होता है। पक्ष के एक भाग में रहे और एक भाग में न रहे उस हेतु को भागासिद्ध हेत्वाभास कहते हैं, यहाँ शब्द पक्ष है साध्य अनित्यत्व है और हेतु प्रयत्न के अनन्तर होना है, अतः संसार के सारे ही शब्द प्रयत्न के बाद ही हो ऐसी बात नहीं है, मेघध्वनि आदि बहुत से शब्द बिना प्रयत्न के भी होते हुए देखे जाते हैं, अतः पक्ष के एक भाग में-जो शब्द पुरुष द्वारा किये- बोले गये हैं उनमें तो प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु है और मेघध्वनि आदि शब्द में यह हेतु नहीं है इसलिये भागासिद्ध कहलाता है।
व्याधिकरणासिद्धत्व और भागासिद्धत्व- ये हेतु तो कोई वास्तविक हेत्वाभास नहीं है, ये तो नैयायिकादि परवादी की अपनी एक प्रक्रिया दिखाना मात्र है व्यधिकरणासिद्धत्व का लक्षण सिद्ध यह किया कि पक्ष का हेतु का भिन्न-भिन्न अधिकरण होना व्यधिकरणासिद्धत्व है तो यह बात गलत है, ऐसा हेतु हो सकता है कि उसका अधिकरण भिन्न हो
और साध्य पक्ष का अधिकरण भिन्न है। जैसे एक मुहूर्त के बाद रोहिणी नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि कृतिका का नक्षत्र का उदय हो रहा है, इस अनुमान में रोहिणी का उदय होगा रूप साध्य और कृतिका का उदय हो चुका है यह हेतु इन दोनों का अधिकरण भिन्न-भिन्न, है फिर भी कृतिकोदय हेतु स्वसाध्य का गमक है, [सिद्ध करने वाला है] तथा ऊपर