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3/101 144. तेप्यतत्त्वज्ञाः; हस्तसंज्ञादिसम्बन्धवच्छब्दार्थसम्बन्धस्यानित्यत्वेप्यर्थ- प्रतिपत्तिहेतुत्वसम्भवात्। न खलु हस्तसंज्ञादीनां स्वार्थेन सम्बन्धी नित्यः, तेषामनित्यत्वे तदाश्रितसम्बन्धस्य नित्यत्वविरोधात्। न हि भित्तिव्यपाये तदाश्रितं चित्रं न व्यपतीत्यभिधातुं शक्यम्।
145. न चानित्यत्वेऽस्यार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वं न दृष्टम्; प्रत्यक्षविरोधात्।
किया जाना और उसका भी अन्य द्वारा, (क्योंकि योग्यता अनित्य होने से नष्ट हो जाती है और उसको पुनः पुनः अन्य अन्य शब्द द्वारा सम्बद्ध करना पड़ता है)।
यदि इस सहज योग्यता को नित्य रूप स्वीकार करते हैं तो उस नित्य योग्यता का सम्बन्ध होने के कारण ही नित्य रूप शब्द पदार्थ का बोध कराने में हेतु होते हैं ऐसा स्वयमेव सिद्ध होता है।
144. जैन- यह कथन असत् है शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य होते हुए भी हस्त संज्ञा आदि के सम्बन्ध के समान ये भी अर्थ की प्रतिपत्ति कराने में हेतु होते हैं अर्थात् हस्त के इशारे से, नेत्र के इशारे से जिस प्रकार अर्थ बोध होता है जो कि अनित्य है, उसी प्रकार शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य होते हुए भी उसके द्वारा अर्थ बोध होता
हस्त संज्ञा (हाथ का इशारा) आदि का अपने अर्थ के साथ नित्य सम्बन्ध तो हो नहीं सकता क्योंकि स्वयं हस्तादि ही अनित्य हैं तो उनके आश्रय से होने वाला सम्बन्ध नित्य रूप किस प्रकार हो सकता है? भित्ति के नष्ट होने पर उसके आश्रित रहने वाला चित्र नष्ट नहीं होता ऐसा कहना तो अशक्य ही है।
अभिप्राय यह है कि स्वयं हस्त संज्ञादि अनित्य हैं अतः उसका अर्थ सम्बन्ध भी नष्ट होने वाला है, जैसे कि भित्ति नष्ट होती है तो उसका चित्र भी नष्ट होता है।
145. हस्त संज्ञा आदि अनित्य होने पर भी उससे अर्थ बोध नहीं होता हो ऐसी बात नहीं है क्योंकि ऐसा कहना प्रत्यक्ष से विरुद्ध
184:: प्रमेयकमलमार्तण्डसार: