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अहिंसा दर्शन शुक्रवार तदनुसार दिनांक 28 नवम्बर 1980 के दिन उनका स्वर्ग की ओर महाप्रयाण हो गया।
अहिंसा की आध्यात्मिक व्याख्या
सूक्ष्मता से देखा जाए तो अहिंसा की आध्यात्मिक परिभाषा ही उसकी वास्तविक परिभाषा है। आत्मा में रागादि नहीं होना अहिंसा तथा रागादि की उत्पत्ति होना हिंसा है - यह मूल आध्यात्मिक परिभाषा है। अहिंसा की अन्य परिभाषाएँ और व्याख्याएँ इसी मूलस्रोत से निकलती हैं।
कानजीस्वामी ने समयसार ग्रन्थ के बन्ध-अधिकार की व्याख्या करते हुए अहिंसा की सूक्ष्म विवेचना की है। राग से ही कर्मों का बन्ध होता है, अतः यही हिंसा है। यह सब अज्ञानदशा में होता है। ज्ञानदशा में जीव भावहिंसा नहीं करता है। हिंसा-अहिंसा के सम्बन्ध में कानजीस्वामी के प्रवचन में आये महत्वपूर्ण सूत्र यहाँ प्रस्तुत हैं
(1) भगवान आत्मा तो पूर्ण आनन्द का नाथ, विज्ञानघन स्वरूप, सदा वीतराग स्वरूप ही है। वह जैसा है, उसे वैसा ही मानने का नाम अहिंसा है तथा वह जैसा है, उसे वैसा नहीं मानना, अपूर्ण या रागादिरूप या अल्पज्ञ मानना मिथ्यात्व है, भ्रम है, यही स्वरूप की वास्तविक हिंसा है, निश्चय हिंसा
(2) बाह्य में परघात का होना, यह व्यवहार हिंसा है तथा सावधानीपूर्वक परजीवों का घात न होने देना, उनके प्राणों की रक्षा करना, वह व्यवहार अहिंसा है।
(3) आत्मज्ञानी को पूर्ण सावधानी के बावजूद अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीव का घात हो भी जाए तो बन्ध नहीं होता। ज्ञानी, जीव बुद्धिपूर्वक कभी परजीवों का घात नहीं करते, उनके हृदय में ऐसी करुणाबुद्धि सहज ही होती
है।
1.
सभी अंश प्रवचनरत्नाकर, भाग-8 से उद्धृत