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अहिंसा दर्शन
(2) हिंसा या अहिंसा के मूल स्रोत, आत्मा की असत् और सत् प्रवृत्तियाँ हैं; जीवघात या जीवरक्षा उनकी कसौटी नहीं है।
(3) जैसे मोक्षमार्गी को व्यवहारदृष्टि की अहिंसा से धर्म नहीं होता; वैसे ही व्यवहारदृष्टि की हिंसा से पाप नहीं होता । जीवघात होने पर भी व्यावहारिक हिंसा, बन्धन का कारण नहीं होती; वैसे ही जीवरक्षा होने पर भी व्यावहारिक अहिंसा, मुक्तिकारक नहीं होती।
(4) जो जीवों की रक्षा को अहिंसा का ध्येय मानते हैं, उन्हें बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों के घात में पुण्य मानना ही पड़ता है और वे मानते भी हैं; इसीलिए जीवरक्षा अहिंसा का एकमात्र ध्येय नहीं है।
(5) अहिंसा का सिद्धान्त जहाँ मात्र करुणा या जीवरक्षा से जुड़ जाता है, वहाँ अहिंसा लोकप्रिय बनती है, पर पवित्र नहीं रह पाती ।
(6) अहिंसा में जीवरक्षा हो सकती है, पर यह उसकी अनिवार्यता नहीं है। आचार्य भिक्षु के विचार श्री कानजीस्वामी से बहुत कुछ साम्य रखते हैं। पहले आचार्य भिक्षु भी स्थानकवासी साधु थे और कानजीस्वामी भी । दोनों ने ही अपने मताग्रह का त्याग कर अद्भुत क्रान्ति की।
इस परम्परा के अन्य आचार्य
आचार्य भिक्षु ने तेरापन्थ धर्मसंघ की स्थापना की। इसी परम्परा में आगे चलकर नवम आचार्य तुलसी हुए, जिन्होंने अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन किया और अहिंसा धर्म की उपयोगिता को जनसामान्य में प्रतिष्ठापित करने के लिए विशाल साहित्य रचा। इनके बाद आचार्य महाप्रज्ञ प्रेक्षाध्यान के नये प्रयोगों तथा अहिंसा आदि सिद्धान्तों की आधुनिक एवं आध्यात्मिक व्याख्या कर पूरे विश्व में शान्ति का सन्देश फैलाया आचार्य महाप्रज्ञ ने भी अहिंसा एवं विश्वशान्ति के लिए सैकड़ों ग्रन्थ तथा हजारों निबन्ध लिखे हैं । आचार्य महाप्रज्ञ के देवलोक गमन के पश्चात् आचार्य महाश्रमण अहिंसा की अलख जला रहे हैं।