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पंचम अध्याय
रत्नत्रयधारी संयमी मुनि, जो अहिंसा महाव्रत के धारी हैं, उन्हें बहुत ही सावधानीपूर्वक आध्यात्मिक अहिंसा का पालन अनिवार्य हो जाता है; अतः निष्प्रमाद आचरण करते हुए भी यदि किसी जीव का घात उनके निमित्त से हो जाता है तो अहिंसा की स्थूल परिभाषाओं से ऊपर उठकर बाह्य हिंसा होते हुए भी उन्हें हिंसा का दोष नहीं लगता है। लेकिन ऐसी अहिंसा का पालन करने की सामर्थ्य ऐसे ही यत्नाचारियों में होती है; अतः वे स्वच्छन्दी नहीं होते हैं।
यद्यपि असंयमी अवस्था में भी मानसिक और बौद्धिकस्तर पर इस आध्यात्मिक व्याख्या को समझने में कोई दोष नहीं है। प्रत्युत अच्छा ही है किन्तु अपनी भूमिका से ऊपर उठे बिना, उसी अवस्था में उसका अक्षरश: पालन करने की कोशिश करना भी हानिकारक हो जाता है। यह कोशिश सामाजिक दृष्टि से भी विरोधाभास की स्थिति का कारण बनती है और आध्यात्मिक दृष्टि से भी।
उपर्युक्त कुतर्कों के विपरीत ज्ञानी व्यक्ति, अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या को समझकर निम्नप्रकार विचार करता हैं -
1. जब आत्मा मरता या जीता नहीं, तब हम किसी को मारने वाले या जिन्दा रखने वाले कौन होते है?
2. भावना, शुद्ध होने पर हिंसा हो ही नहीं सकती; अत: यदि हिंसा हुई है तो उसमें कहीं न कहीं मेरा ही दोष है।
3. जब जीव, आयुकर्म पूर्ण होने पर ही शरीर छोड़ता है, तब हम उसमें निमित्त भी क्यों बनें? उसका विकल्प भी क्यों करें?
4. प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने कारणों से स्वतन्त्ररूप से परिणमित हो रहा है; अतः कोई मेरा कुछ भी भला-बुरा नहीं कर सकता और न मैं किसी का भला-बुरा कर सकता हूँ।