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पंचम अध्याय
अज्ञानवश ये जीव शरीर के जन्म को आत्मा का जन्म और शरीर के मरण को आत्मा का मरण मानते हैं लेकिन शरीर में स्थित आत्मा का न तो जन्म होता है और न ही वह मरता है। मरण उसी का होता है, जिसका जन्म हुआ हो। जो अजन्मा है, उसकी मृत्यु कैसी? शरीर के मरने पर भी वह नहीं मरता।'
यदि हम या आप कोई चाहे तो भी आत्मा को न तो उत्पन्न कर सकते हैं और न ही मार सकते हैं फिर मृत्यु किसकी होती है? मरता कौन है? हिंसा कौन करता है? - यह प्रश्न उठता है। आत्मा नित्य और अविनाशी है - यह सिद्धान्त भारतीयदर्शन की प्रमुख धारा में सम्मिलित है। गीता का वाक्य है -
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
अर्थात् असत् का कभी उत्पाद नहीं होता और सत् का कभी नाश नहीं होता।
अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्मर्तुमर्हति॥
अर्थात् जो सारे शरीर में व्याप्त है, उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
यह आत्मा का न तो कभी किसी शस्त्र के द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि के द्वारा जलाया जा सकता है, न जल के द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्। कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हान्तिकम्।।
गीता 2/20 गीता, 2/16 गीता, 2/17 गीता, 2/17 गीता, 2/21