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अहिंसा दर्शन
फिरने, उठने-बैठने, इत्यादि कार्यों में अपरिहार्यरूप से जो जीवघात होता है, वह 'आरम्भी हिंसा' है।
3. उद्योगी हिंसा - आजीविका उपार्जन के लिए नौकरी, कृषिकार्य और उद्योग-व्यापार आदि कार्यों में अपरिहार्यरूप से जो जीव-हिंसा होती है, वह सब 'उद्योगी हिंसा' की श्रेणी में आती है। किन्तु अहिंसा का समर्थक मनुष्य वही व्यापार करेगा, जिसमें कम से कम जीवघात हो और अन्य का शोषण न हो।
4. विरोधी हिंसा - राष्ट्र-धर्म-समाज या अपने कुटुम्ब-परिवार स्वजन आदि पर आये संकट को दूर करने या उनकी रक्षा या आत्मरक्षा करते हुए किसी आक्रमणकारी की हिंसा, न चाहते हुए भी हो जाती है, वह 'विरोधी हिंसा' कहलाती है। क्योंकि यहाँ उद्देश्य रक्षामात्र था, उन्हें मारना नहीं।
इन चार प्रकार की हिंसा में से गृहस्थ मनुष्य, जो साधु या संन्यासी नहीं है, वह प्रथम सङ्कल्पी हिंसा का पूर्णरूप से त्याग करता है। शेष तीन हिंसा उसके गृहस्थ सामाजिक जीवन में होती तो अवश्य है और वहाँ भी वह हिंसा से बचने का प्रयास करता है किन्तु मजबूरीवश हिंसा हो जाती है।
क्या हिंसा का पूर्ण-त्याग सम्भव है? -
यदि गृहस्थ जीवन है तो हिंसा किसी न किसी रूप में अवश्य होगी, फिर पूर्ण अहिंसा कैसे सम्भव है? - यह आज का सामान्य प्रश्न है। शास्त्रों में साधु-संन्यासियों के लिए सम्पूर्ण अहिंसा के लिए अहिंसा महाव्रत का वर्णन है। गृहस्थ के लिए पूर्ण अहिंसा सम्भव नहीं है, इस कारण उसके लिए व्यवहारिक अहिंसा का मार्ग है 'हिंसा का अल्पीकरण'। अर्थात् यथासम्भव कम से कम हिंसा हो। तात्पर्य यह है कि जीने के लिए जो बहुत जरूरी नहीं, वैसी हिंसा का त्याग किया जा सकता है।
इस दृष्टि से हम हिंसा को दो स्तरों में विभाजित कर सकते हैं