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तृतीय अध्याय
1. मानसिक अहिंसा -
हिंसा की व्याख्या करते समय प्रायः यह समझा जाता है कि यदि किसी की जान ली जा रही है, उसे दुःख पहुँचाया जा रहा है तो हिंसा हो रही है और यदि ऐसी घटनाएँ नहीं हो रही हैं तो अहिंसा है किन्तु, यह स्थूल व्याख्या है। हमारे जीवन में बाह्य हिंसा से अधिक मानसिक हिंसा होती है। वास्तव में तो लगभग 99 प्रतिशत बाह्य हिंसा के पीछे मानसिक हिंसा ही कारण होती है। इसीलिए मानसिक हिंसा से बचने के लिए सदा सौहार्दभाव, स्वस्थ्य चिन्तन बढ़ाते रहना चाहिए।
अपने मन में किसी के अहित का विचार करना मानसिक हिंसा तो है ही; किसी दूसरे के मन को दुःख पहुँचाना भी मानसिक हिंसा का ही एक रूप है। किसी व्यक्ति, परिवार, समाज या समग्र राष्ट्र को दुःखी करने के उद्देश्य से उनके अहित का चिन्तन करना और योजनाएँ बनाना भी मानसिक हिंसा है। जैनदर्शन में मान्यता है कि किसी को तकलीफ पहुँचाना तो दूर, इसके बारे में मन में बुरा ख्याल आना भी हिंसा है। उदाहरण के रूप में हमने किसी को मारने का विचार किया किन्तु मारा नहीं तो भी हमें हिंसा का दोष अवश्य लगेगा। कई बार फिल्म या सीरियल देखते समय खलनायक या अन्य किसी के अनिष्ट का चिन्तन करके हम व्यर्थ ही मानसिक हिंसा के भागी बन जाते हैं।
अनेक घटनाओं में यह देखा जाता है कि हिंसा का सतत चिन्तन करते रहने के कारण मनुष्य का मानसिक सन्तुलन खराब हो जाता है और वह बड़ी-बड़ी हिंसक घटनाओं को अंजाम देने लगता है। इसीलिए मानसिक रूप से अहिंसकभावना को विशेष महत्त्व दिया गया है। मनुष्य जब मन से शान्त रहेगा, हिंसक विचार नहीं करेगा तो बाह्य हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठेगा। मानसिक और वैचारिक शान्ति, हमारे अहिंसक व्यवहार का प्रमुख कारण है। मन में राग-द्वेष रूप विचारों को नहीं आने देना और क्षमा, समता, शान्ति आदि अहिंसक विचारधारा को अपने में सतत प्रवाहित होने देना ही मानसिक अहिंसा है।