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तृतीय अध्याय
होगा तथा किसी को संशय नहीं होगा और न ही संघर्ष होगा। अतः यदि शुद्ध बोलें और हित-मित प्रिय वचन बोलें तो सभी को अच्छा लगता है। ऐसा नहीं बोलें, जिससे दूसरों को दुःख पहुँचता हो, उससे हिंसा होती है।
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जैनधर्म के अनुसार वचनों की अहिंसा का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग किया जाना चाहिए। अर्थात् हिंसक शब्दों का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। जैसे, 'सब्जी या फल काट दो' कहने की अपेक्षा 'सब्जी या फल बना दो या सुधार दो' कहना अहिंसक वचन है। 'काटना' शब्द हिंसक है अतः इसके कहने से हिंसा का वातावरण बनता है। अन्तर सिर्फ इतना है कि सोचने और कहने का अन्दाज अलग-अलग है। इसी प्रकार मनुष्यों के वैचारिक स्तर में भी अन्तर हो जाता है।
अहिंसा के तीन स्तर मानसिक, वाचिक और कायिक
किसी भी प्राणी को नहीं मारना, उसे दुःख नही पहुँचाना, यह सामान्य अर्थ में अहिंसा है। व्यापक अर्थ में मन-वचन-काय और कृत, कारित, अनुमोदन से प्राणीमात्र को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाना या उनके प्राणों का घात न करना, अहिंसा है। मन, वचन और काय (शरीर) में से किसी एक के द्वारा भी किसी प्रकार के जीव की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है; ऐसे जीवन को निरन्तर धारण करना ही अहिंसा है।
अहिंसा का यह सैद्धान्तिक और नैतिक आधार जैनधर्मदर्शन में उपलब्ध है। अहिंसा का क्षेत्र सीमित नहीं है। अहिंसा का सम्बन्ध अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग, दोनों रूपों में हैं । प्राणीमात्र को मन, वचन और काय से किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाना, उसका दिल नहीं दुःखाना, यह तो बहिरङ्ग अहिंसा है और राग-द्वेष से निवृत्त होकर साम्यभाव में स्थिर होना, अन्तरङ्ग अहिंसा है। इतनी व्यापक परिभाषा हमें पूर्व से लेकर पश्चिम तक कहीं भी देखने को नहीं मिलती। कोई भी कार्य या क्रिया, जो राग-द्वेष भाव से की