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अहिंसा दर्शन
दया, क्षमा तथा सभी के कल्याण की भावना, लगभग सभी धर्मों में समान हैं। कोई भी धर्म यह नहीं कहता है कि दूसरे प्राणी को दुःख दो, झूठ बोलो, चोरी करो, व्यभिचार करो । धर्म यह कह भी नहीं सकता, क्योंकि धर्म ही यदि ऐसा कहेगा तो फिर हम अधर्म की क्या परिभाषा करेंगे ? तब तो धर्म और अधर्म के बीच विभाजक रेखा खींचना अत्यन्त कठिन हो जाएगा।
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यदि हम मानव हैं किन्तु हममें मानवीयता नहीं है, इंसान हैं, किन्तु हममें इंसानियत नहीं है और यदि दूसरे प्राणियों को जान से मारना या फिर उन्हें दुःख पहुँचाना ही हमारा कार्य है तो सबसे पहले हमें स्वयं मरने और दुःख भोगने को तैयार रहना चाहिए क्योंकि ऐसे विचार सिर्फ हमारे ही नहीं हैं। सामने वाले के भी हो सकते हैं फिर भी यदि हमें यह स्वीकृत है तब तो कोई नहीं बचेगा, सब समाप्त हो जाएगा। गाँधी जी कहा करते थे कि आँख के बदले आँख फोड़ने की संस्कृति रही तो एक दिन पूरा संसार अंधा हो जायेगा। यही कारण है कि पृथ्वी पर सब नियमों के पहले, सबसे पहला नियम उभरकर आया - 'जियो और जीने दो' और यही मनुष्यधर्म की पहली सीढ़ी है।
जिस तरह हम जीना चाहते हैं, उसी प्रकार दूसरा प्राणी भी जीना चाहता है। इस दुनिया में सिर्फ हम ही नहीं हैं, हमारी ही तरह दूसरे भी हैं। यदि हम किसी को जीवन नहीं दे सकते तो जीवन लेने का भी हमारा कोई अधिकार नहीं है । इस अवधारणा के आधार पर 'अहिंसादर्शन' का जन्म हुआ, यही अहिंसा दर्शन की पृष्ठभूमि भी है और आधारभूमि भी ।
अहिंसा केवल एक व्रत नहीं है, एक विचार है, एक समग्र चिन्तन है अहिंसा किसी मन्दिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे पर जाकर सुबह-शाम सम्पन्न की जाने वाली कोई पूजा, नमाज, प्रेयर या प्रार्थना नहीं है; वह जीवन में चरितार्थ किया जाने वाला एक सम्पूर्ण जीवनदर्शन है और संसार के सभी धर्मों का मूल है।