________________
निष्कर्ष
169
मजाक उड़ा रहे हैं। हमें लगता है कि हजारों वर्षों की ऋषि-मुनियों की साधना, उनके दिव्यज्ञान, आध्यात्मिक प्रेरणा का हमारी तथाकथित सभ्य समाज पर जरा सा भी असर नहीं पड़ पाया है।
हमने जब जब अहिंसा के विशाल स्वरूप को मजबूरियों से सनी हिंसा की शर्तों के अनुसार गढ़ने की कोशिश की है; मानवीय मूल्यों का ह्रास इसी तरह हुआ है।
उत्सवों में हिंसक आनन्द
इतना ही नहीं, हम यदि गौर करें तो पायेंगे कि हमारे जीवन में ऐसे कई काम हैं जिन्हें हम त्यौहार, उत्सव, संस्कृति, लोकाचार कुलाचार आदि के नाम पर करते हैं और उनमें हिंसा होती है और हम उसमें आनन्द मानते हैं। उसे धर्मानुकूल मानते हैं। उदाहरण के रूप में दीपावली को ही लें। इस दिन हम आतिशबाजी करते हैं। आनन्द का अनुभव करते हैं किन्तु इस आनन्दानुभूति में हमें यह ख्याल नहीं रहता कि पटाखे चलाने से असंख्य जीवों के प्राणों का हरण हो जाता है। सूक्ष्म जीव जो वातावरण में रहते हैं और दिखायी नहीं देते वे तो मरते ही हैं साथ ही आकाश में विचरण करने वाले पक्षी इत्यादि भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। कई स्थलों पर पशुओं की पूंछ में बमों की लड़ियाँ बाँधकर; उन पशुओं की मर्मवेदना, चीत्कार और मारे पीड़ा के यत्र-तत्र विचरण करता देख तालियाँ बजाते तथा आनन्दित होते लोगों को मैंने स्वयं कई बार देखा है। मकरसंक्रान्ति पर पतंग की तीखी डोर से कितने पक्षियों के पंख कट जाते हैं? हम कभी विचार नहीं करते। होली पर मनुष्य स्वयं आपस में खूनी संघर्ष तक कर डालते हैं; अनेक प्राणियों को सताते हैं।
इस प्रकार के उदाहरण अनेक हैं। हम विचार ही नहीं करते हैं और न ही हमारा ध्यान इन बातों पर कभी जाता है। बच्चों को वीडियो गेम्स के माध्यम से नकली वध करके मनोरंजित होते हुये मैं अक्सर देखता हूँ। ये भावहिंसा के ज्वलन्त उदाहरण हैं मनोरंजन की आड़ में हम हिंसा का कितना प्रशिक्षण उन्हें दे रहे हैं? हम इस बात पर भी