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अहिंसा दर्शन
समाज के बाहर नहीं हो सकती। इसके बीच के भेद के दुष्परिणाम हिंसा और युद्ध के रूप में दिखते हैं। इसे समझना और जीवन में उतारना ही एक मात्र विकल्प है।
इस सन्दर्भ में अहिंसा प्रशिक्षण जैसे प्रायोगिक विचारों का भी उदय बीसवीं सदी में हो चुका है ये प्रक्रियायें भी अभी वक्त लेंगी, किन्तु यह तो तय है कि कोई भी समाज आतंकवाद को हिंसा को अशान्ति को सतत बर्दाश्त नहीं कर सकता, इसलिए परिवर्तन स्वयं से ही करना होगा।
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हम बुरे के प्रति सतर्क रहें और अच्छे के लिए आश्वस्त, तभी कुछ नया सर्जन कर सकते हैं, एक नयी समाज मीमांसा की तरफ बढ़ सकते हैं जो भय मुक्त अहिंसक समाज संरचना की अवधारणा प्रस्तुत कर सके और अहिंसक समाज तथा राष्ट्र का निर्माण कर सके ।