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अहिंसा दर्शन पर उन दस बालकों में से आठ बालकों के हाथ में प्लास्टिक की स्टेनगन, रिवाल्वर, बन्दूकें तथा इसी प्रकार के हिंसक हथियार होंगे। स्कूलों में बढ़ता अनावश्यक किताबी बोझ, होमवर्क न करने पर उत्पन्न किया गया घर पर माँ-बाप, ट्यूटरों और महँगे स्कूलों में शिक्षकों द्वारा व्याप्त आतंक बालमन में कुण्ठा पैदा करता है और हिंसात्मक फिल्में, एनिमेशन, सीरियल तथा कॉमिक्स का जुनून उन्हें इन कुण्ठाओं से उबरने के लिए उनके मन में बन्दूक संस्कृति के रूप में हिंसक प्रवृत्तियों का जहर घोलता है। उसका परिणाम यह होता है कि वह प्लास्टिक की स्टेनगन से करर-करर करके सबको भूनने की बातें करता और सोचता है। यद्यपि हम इसे खेल समझते हैं किन्तु हिंसानन्दी खेल, खेल नहीं, हिंसा का प्रशिक्षण है जो बाल्यकाल से प्रारम्भ होता है। इसे हम आतंकवाद आदि हिंसक प्रवृत्तियों के प्रशिक्षण का शैशव काल कह सकते
किशोर मन में आतंक के बीज
किशोर वय हर मनुष्य के जीवन में सन्धि का काल होती है। कल्पनालोक व यथार्थ के मध्य भटकता किशोर जब अपनी इच्छाओं की पूर्ति व प्यार की अभिलाषा माँ-बाप और अन्य परिजन से प्राप्त नहीं कर पाता है तब वह उम्र की उठान पर ही घनघोर हताशा और निराशा का शिकार हो जाता है। गलत संगतियों में पड़कर आक्रोश, नशा और समाज की हर घटनाओं के प्रति विद्रोही स्वर उसकी रग-रग में दौड़ने लगता है। दिल्लीगुडगांव के स्कूलों में नौवीं-दसवीं के छात्रों के द्वारा चाकुओं से हमला, रिवाल्वर द्वारा मर्डर की घटनायें हमने हाल ही में सुनी-पढ़ी हैं। यह आतंकवाद की हिंसात्मक अभिव्यक्ति से थोड़ा पहले की अवस्था है।
युवा मन में आतंक
युवा शक्ति के सामने संसार की सारी शक्तियाँ अपना सिर झुकाती हैं। इस उम्र में युवा जहाँ अपना कैरियर निर्माण कर रहा होता है वहीं दूसरी ओर युवतियों की नशीली आँखों का ग्लैमर और अपना प्रिय जीवन साथी