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परिशिष्ट
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अच्छा प्रचार था। ई. 6वीं 7वीं शताब्दी में चीनी यात्री हेनसांग को वहाँ अनेक दिगम्बर जैन मुनि मिले थे।
अरब का उल्लेख जैन आगमों में मिलता है। भारत से अरब का व्यापार चलता था । जादिस अरब का एक बड़ा व्यापारी था - भारत से उसका व्यापार खूब होता था । भारतीय व्यापारी भी अरब जाते थे। जादिस का मित्र एक भारतीय वणिक था। वह ध्यानी योगी की मूर्ति भी अपने साथ अरब लाया और उसकी पूजा करता । जादिस भी प्रभावित हो पूजा करने लगा। मौर्य सम्राट सम्प्रति ने जैन श्रमणों, भिक्षुओं के विहार की व्यवस्था अरब और ईरान में की, जिन्होंने वहाँ अहिंसा का प्रचार किया। बहुत से अरव जैनी हो गये, किन्तु पारस नरेश का आक्रमण होने पर जैन भिक्षु और श्रावक भारत चले आये। ये लोग दक्षिण भारत में बस गये और 'सोलक' अरबी जैन कहलाये।'
वे आगे लिखते हैं कि- 'सन् 998 ई. के लगभग भारत से करीब बीस साधु संन्यासियों का दल पश्चिम एशिया के देशों में प्रचार करने गया । उनके साथ जैन त्यागी भी गए, जो चिकित्सक भी थे। इन्होंने अहिंसा का खासा प्रचार उन देशों में किया। सन् 1024 के लगभग यह दल पुनः शान्ति का सन्देश लेकर विदेश गया और दूर दूर की जनता को अहिंसक बनाया। जब यह दल स्वदेश लौट रहा था तो इसे अरब के तत्त्वज्ञानी कवि अबुल अला अल मआरी से भेंट हुयी । जर्मन विद्वान् फ्रान क्रेमर ने अबुल - अला को 'सर्वश्रेष्ठ सदाचारी शास्त्री और सन्त कहा है।'
अबुल अला गुरु की खोज में घूमते-घूमते जब बगदाद पहुँचे, तो बगदाद के जैन दार्शनिकों के साथ उनका समागम हुआ था और उन्होंने जैनशिक्षा ग्रहण की थी । इसका परिणाम यह हुआ कि अबुल अला पूरे अहिंसावादी योगी हो गये। वे केवल अन्नाहार करते थे। दूध नहीं लेते थे, क्योंकि बछड़े के दूध को लेना वे पाप समझते थे बहुधा वे निराहार रहकर उपवास करते थे । कामता प्रसाद जी लिखते हैं कि वे शहद और अण्डा भी