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अष्टम अध्याय
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है। व्यवस्थाओं के मुख्यतः तीन पहलू हैं - आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और राजनैतिक व्यवस्था।
आर्थिक व्यवस्था -
अर्थ की प्रकृति में ही हिंसा है; अतः अर्थशास्त्र एवं आर्थिक व्यवस्था को पूर्णतः अहिंसक नहीं बनाया जा सकता परन्तु उससे अपराध, क्रूरता, शोषण और विलासिता को अवश्य समाप्त किया जा सकता है। यह विचारपूर्ण तथ्य है कि अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों खतरनाक हैं।
विकास की भौतिक अवधारणा का विकल्प मात्र अहिंसक व्यवस्था से ही सम्भव है। अहिंसक व्यवस्था में साधन-शुद्धि, व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा, उपभोग की सीमा, अर्जन के साथ विसर्जन तथा विलासिता की सामग्री के उत्पादन और आयात पर रोक की व्यवस्था का ईमानदारी के साथ व्यक्ति तथा सरकार दोनों को पालन करना होगा। इसके साथ-साथ अहिंसक तकनीक की खोज, अहिंसक तरीकों से आर्थिक व्यवस्था को आवश्यक स्थान देना होगा।
सामाजिक व्यवस्था -
अहिंसक आर्थिक व्यवस्था के अन्दर ही अहिंसक समाज व्यवस्था का स्वरूप छिपा होता है। जिस समाज में आर्थिक शोषण होता है, वह समाज अहिंसक नहीं है। अहिंसक समाज का आधार अशोषण है। अशोषण के लिए श्रम और स्वावलम्बन की चेतना का विकास, व्यवसाय में प्रामाणिकता तथा क्रूरता का वर्जन अनिवार्य है।
समाज में अनेक प्रकार की हिंसा होती है। अहिंसक समाज में कुछ विशेष प्रकार की हिंसा का सर्वथा वर्जन हो। उदाहरणार्थ - आक्रामक हिंसा, निरपराध व्यक्तियों की हत्या, दहेज सम्बन्धी प्रताड़ना, भ्रूण हत्या, जातीयघृणा, छुआछूत आदि का व्यवस्थागत निषेध हो। साम्प्रदायिक अभिनिवेश, मादक वस्तुओं का सेवन तथा प्रत्यक्ष हिंसा को जन्म देने वाली रूढ़ियों और कुरीतियों का वर्जन भी आवश्यक है।