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गाथा परम विजय की
धन-धान्य सबकी बरबादी होती है, महंगाई बढ़ जाती है। खाने को मिलता नहीं है, खेती होती नहीं है। सब लोग निकम्मे हो जाते हैं। यह अच्छा नहीं है।'
‘महाराज मृगांक! आप यह न मानें कि आपकी विजय हुई है और रत्नचूल की हार हुई है। आपसे यह अधिक शक्तिशाली है। यह जय-विजय की तो एक घटना घटित हो गई पर अब आप न अहंकार करें और न विद्वेष का भाव रखें।'
इस प्रकार का समन्वयचेता मिलता है तो वैर-विरोध का दावानल अपने आप बुझ जाता है। समस्या यह है-लड़ाने-भिड़ाने वाले ज्यादा मिलते हैं। मैत्री, प्रेम का संबंध स्थापित करने वाले लोग बहुत कम मिलते हैं।
सौराष्ट्र की घटना है। दो सगे भाई, दोनों बहुत संपन्न । दोनों की दो कोठियां। एक की कोठी में उगा हुआ था सुपारी का पेड़ और वह दूसरे की कोठी में झुका हुआ था । पेड़ पर जो सुपारियां लगतीं, वे दूसरी कोठी में गिरतीं, वहीं तोड़ी जातीं।
भाई बोला-‘भाई! यह तो ठीक नहीं है। पेड़ तो मेरी कोठी में है और सुपारियां तुम तोड़ लेते हो। बंद करो इसको। सुपारी मत तोड़ो।'
उसने कहा-'मैं क्या करूं? उगा तुम्हारी कोठी में है और झुक
गया है मेरी कोठी में। बच्चे कैसे नहीं तोड़ेंगे ?'
छोटी-सी बात को लेकर झगड़ा शुरू हो गया, मुकद्दमा कर दिया। पहुंच गये हाईकोर्ट तक। न्यायाधीश के सामने केस आया। न्यायाधीश ने सोचा–बात कुछ भी नहीं है। इस नाकुछ सी चीज के लिए इतना लड़ रहे हैं। न्यायाधीश समन्वयवादी था। वह कोरा फैसला देने वाला नहीं था, कानून के आधार पर समन्वय में विश्वास करता था। उसने कहा- एक दिन मैं मौके पर जाकर देखूंगा कि स्थिति क्या है? न्यायाधीश ने जानकारी कर ली, सारी व्यवस्था कर ली। दोनों भाइयों के घर पहुंचा। मजदूरों बुलाया और मिनटों में ही पेड़ को उखाड़कर फेंक दिया। दोनों भाई एक साथ बोले-'यह क्या किया आपने ?' न्यायाधीश—'इसका यही फैसला देना था मुझे। यही रास्ता था झगड़ा समाप्त करने का। अब न पेड़ रहेगा, न सुपारियां तोड़ेंगे और न हाईकोर्ट में पहुंचने की जरूरत होगी।'
कोई-कोई व्यक्ति ऐसा समन्वयवादी होता है जो झगड़े की जड़ को उखाड़ना चाहता है। वह जड़ का उन्मूलन कर देता है और मैत्री स्थापित करवा देता है।
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