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गाथा परम विजय की
जम्बूकुमार ने आठ नवपरिणीता बहुओं का मन बदल दिया, प्रभव का मन बदल दिया। जम्बूकुमार और प्रभव दोनों ने ५०० चोरों का मन बदल दिया। ऐसा लगा जैसे कोई अमृत की बूंद गिरी, उनसे चित्त आप्लावित और आनंदमय हो गया। वे सब अतीत को विस्मृत कर शुभ भविष्य का संकल्प सजाने लगे।
प्रभव ने सोचा–मैं एक बार इनकी परीक्षा तो कर लूं। क्या सचमुच आंतरिक संकल्प प्रस्फुट हुआ है? प्रभव बोला—'साथियो! दिन उगने वाला है। यह धन की पोटलियां, गट्ठर बंधे हुए पड़े हैं। इनको उठाओ। हम चलें।'
सारे चोर एक स्वर में बोले-'स्वामी ! अब धन किसको चाहिए। 'वोसिरे- वोसिरे'-इन पोटलियों को यहीं वोसिराते हैं, छोड़ते हैं। ये जिसकी हैं उसको भी नहीं चाहिए तो हमें क्यों चाहिए? आज से हमारे लिए यह सोना- तृणवत् सर्वकंचनं तिनके की तरह है । हमें धूल और सोने में कोई अंतर नहीं लग रहा है। जैसी धूल वैसा सोना और जैसा सोना वैसी धूल । अब हमारा मोहभंग हो गया है।'
‘बोलो, तुम क्या चाहते हो?’
'स्वामी! हम सब भी तुम्हारे साथ हैं।'
तुम चलो संधान लेकर, हम तुम्हारे साथ में हैं ।
'तुम साधु बनो तो हम भी साधु बनेंगे।'
एक फौज तैयार हो गई साधु बनने वालों की |.....
यह कैसी रात है, जो परिवर्तन का विलक्षण इतिहास रच रही है।
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