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________________ गाथा परम विजय की सामाजिक संस्कृति या वैदिक संस्कृति में इस बात पर बहुत बल दिया गया - माता-पिता का चुकाओ जम्बूकुमार ने प्रभव की ओर उन्मुख होते हुए कहा- 'तुम्हारा यह कथन ठीक है कि माता-पिता का कर्जा चुकाना चाहिए, फिर घर छोड़ने की बात करनी चाहिए। पर तुम मुझे बताओ - किसी के पुत्र पैदा हुआ। माता-पिता ने उसे पाला-पोसा । कोई आठ वर्ष की अवस्था में विदा हो गया, कोई सोलह वर्ष की अवस्था में दिवंगत हो गया। अब माता-पिता का कर्जा कौन चुकायेगा ? उनकी सेवा कौन करेगा?' 'कुमार! यह तो विवशता की बात है।' 'विवशता तो है पर चला जाता है या नहीं?' 'हां, जाता तो है।' ‘प्रभव! तुम प्रकृति का नियम, जगत् का नियम समझो। संबंध का भी योग होता है। एक संबंध कितने काल तक रहेगा, उसका भी एक नियम है। जन्म कुंडली को जानने वाला जान लेता है कि इतने वर्ष के बाद माता-पिता से वियुक्त हो जायेगा।' 'प्रभव! तुम पुराने इतिहास को देखो। एक व्यक्ति ने देवी की आराधना की । देवी प्रसन्न हुई । वरदान मांगने के लिए कहा। उसने कहा - संतान नहीं है, संतान चाहिए। देवी ने कहा- 'संतान हो जायेगी पर आठ वर्ष बाद तुम्हारे घर में नहीं रहेगी।' 'प्रभव! इतिहास में कितनी ऐसी घटनाएं हैं। ऐसी स्थितियां बनी हैं कि पुत्र तो दे दिया पर अवधि भी बांध दी कि इतने वर्ष के बाद तुम्हारे घर में नहीं रहेगा । पुत्र होगा पर वह साधना में चला जायेगा, महान पथ पर चला जायेगा।' 'प्रभव! ऐसे पुत्र भी होते हैं, जो माता-पिता के पास रहते हैं और माता-पिता के लिए सिरदर्द भी बने रहते हैं। कभी माता-पिता को सुख नहीं देते। क्या तुम इस तथ्य को अस्वीकार कर सकते हो?' 'कुमार! कोई पुत्र ऐसा भी हो सकता है।' 'प्रभव! इस स्थिति में यदि कोई मुनि बनता है, त्यागी बनता है, घर को छोड़ता है तो यह कर्ज का प्रश्न क्यों उठता है?' 'कुमार! तुम्हारे जैसा समझदार, विनीत और विवेकसंपन्न व्यक्ति इस प्रकार का चिन्तन करता है, तब यह प्रश्न उठता है कि समझदार व्यक्ति ऐसा करेगा तो दूसरों को हम क्या कहेंगे ?' 'प्रभव! मैं तुम्हारे इस तर्क से पूर्णतः सहमत नहीं हूं फिर भी मैंने यह सोचा है कि मैं माता-पिता का ऋण लेकर घर को नहीं छोडूंगा।' प्रभव ने सोचा-काम ठीक हो गया। अब जम्बूकुमार दीक्षा नहीं लेगा । मेरा यह तर्क इसके गले उतर गया कि मैं ऋण चुकाये बिना नहीं जाऊंगा। प्रभव बोला- 'कुमार! क्या मैं यह मान लूं कि आप भी घर में रहेंगे और मुझे भी घर छोड़ने की बात नहीं कहेंगे । ' ३२३
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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