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________________ JU... 9 गाथा परम विजय की कहते-कहते मुंह में लार टपकती जा रही है। उसने उपवास का उपहास करते हुए कहा तुम भूखे मर रहे हो, आज भोज में चलते तो कितना मजा आता। उपवास में लीन व्यक्ति कहता है-मैंने उपवास किया। शरीर हलका और मन प्रसन्न रहा। मैंने ध्यान किया। ध्यान में आज इतना आनंद आया, वैसा जीवन में आज तक कभी नहीं आया। उपवासी को भोजन के आनंद की बात और भोजन करने वालों को उपवास के आनंद की बात समझ में नहीं आयेगी। यह समझ और आकर्षण का बड़ा अन्तर है। इस अंतर को कैसे पाटा जाये? तुलसी अध्यात्म नीडम् में प्रेक्षाध्यान का शिविर था। दसवां दिन। शिविर सम्पन्न हो गया। लोग जाने लगे। मुंबई के एक दम्पती मंगलपाठ सुनने आए। वे सुबक-सुबक कर रोने लगे। मैंने सोचा-क्या हुआ? मैंने पूछा-'भाई! क्या बात है? आप क्यों रो रहे हैं? क्या किसी ने आपका कुछ अपमान कर दिया? क्या हुआ?' वे बोले-'नहीं, किसी ने कुछ भी नहीं किया, कुछ भी नहीं कहा।' 'तो फिर क्यों रो रहे हो? आंखों में आंसू क्यों आ रहे हैं?' . भाई बोला-'महाराज! मैं मोहमयी नगरी मुंबई में रहने वाला हूं। मेरे पास बहुत सम्पदा है। मेरी ६० वर्ष की उम्र है। जीवन में जितने पदार्थों का भोग किया जा सके, उतना मैंने किया है। कोई कमी नहीं है घर में। मैंने सब कुछ भोगा है पर इन दस दिनों में जितना आनंद आया, उतना कभी नहीं आया। जब-जब मैंने दर्शन केन्द्र पर अरुण रंग का ध्यान किया, उस समय मुझे जो आनंद मिला, जीवन में आज तक वैसा आनंद नहीं मिला। अब उस आनन्द को छोड़कर जा रहा हं इसलिए मेरी आंखों में आंसू आ गए। ये कोई दुःख के आंसू नहीं हैं।' ___ यह कोई कल्पना नहीं, सचाई है, जीवन की घटना है। जिसने कभी ध्यान नहीं किया, क्या वह इस सचाई को स्वीकार करेगा? यह भूमिका का भेद समझ में अंतर पैदा करता है। इसीलिए जम्बूकुमार और प्रभव के बीच एक दूरी बनी हुई है। प्रभव ने कहा-'कुमार! तुम घर को मत छोड़ो, यहीं रह जाओ। तुम यह बात मान लो तो हम यह सारा धन यहीं छोड़ देंगे। एक कौड़ी भी तुम्हारी नहीं ले जाएंगे।' जम्बूकुमार बोले-'प्रभव! मैं तुम्हें महावीर वाणी का एक श्लोक सुनाना चाहता हूं सल्लंकामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दोग्गइं।। तुम जिस काम-भोग को अमृत बता रहे हो, वे कामनाएं, वे इच्छाएं, वे काम और भोग शल्य हैं, व्रण हैं। अंतत्रण, जिसको आज कैंसर कहते हैं। एक शल्य भीतर में चुभ गया और भीतर में घाव हो गया। यह भीतर का घाव है। तुम इसे बहुत बढ़िया कह रहे हो। मैं तुम्हारी बात मानूं या महावीर की बात?' ___'प्रभव! महावीर ने कहा ये काम जहर तुल्य हैं। एक बार तो अच्छा लगता है पर आखिर परिणाम होता है-'मृत्यु'। कुछ सांप आसीविष होते हैं। उनकी दाढ़ में जहर होता है। कुछ सर्प दृष्टिविष होते हैं। एक मिनट तक सूरज के सामने देखा, उसे देखकर जैसे ही किसी मनुष्य के सामने दृष्टि फेंकेगा, आदमी वहीं ढेर हो जायेगा। ये काम भी वैसे हैं। इन कामों की इच्छा करने वाला दुर्गति में जाता है।' ३०६
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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