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________________ 'एक भंवरा कमल के पराग का आस्वाद लेने गया। वह पराग में इतना लुब्ध बन गया कि समय का भान नहीं रहा। सांझ का समय । सूरज अस्त होने को था किन्तु इतना लोभी बन गया कि उस स्वाद को वह छोड़ नहीं पा रहा था। यह निर्णय नहीं ले पा रहा था कि मुझे उड़ जाना चाहिए। वह उपयुक्त समय पर निर्णय ले लेता तो सुखी रहता पर प्रियता सम्यक् निर्णय लेने नहीं देती। वह सूर्यास्त से पूर्व निर्णय नहीं ले सका। सूरज अस्त हुआ। कमल का कोष सिकुड़ा और भंवरा उसमें कैद हो गया।' 'प्रिये! निर्णय न लेने में सबसे बड़ी बाधा है प्रियता की । उस प्रियता की जंजीर को न तोड़ने का परिणाम क्या हुआ? कमल कोष में बंद भंवरा बाहर निकल नहीं सका, वह भीतर छटपटा रहा है। वह व्याकुल बना सोचता है रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्, भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः । इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे, हा! हंत हंत नलिनीं गज उज्जहार ।। भंवरा सोच रहा है-मैंने भूल कर दी, प्रमाद कर दिया। जिस समय निर्णय लेना चाहिए था, नहीं लिया। यदि मैं ठीक समय पर निर्णय लेता और उड़ जाता, मैं उस मोहक माया में फंसा नहीं रहता तो आ यह दशा क्यों होती? मैं बंदी क्यों बनता ? मैं मुक्त आकाश में मंडराता रहता, गुंजारव करता रहता । मैंने निर्णय ठीक समय पर नहीं किया इसलिए फंस गया। अब क्या हो ?' वह सोच रहा है-रात्रिर्गमिष्यति - यह रात बीतेगी । भविष्यति सुप्रभातं - उजला प्रभात होगा । भास्वानुदेष्यति—सूरज उगेगा। हसिष्यति पंकज श्रीः - कमल का फूल खिल जायेगा । मैं तत्काल मुक्त आकाश में विहरण करने लग जाऊंगा। ‘प्रिये! कमल कोष में बंदी वह भंवरा कल्पना कर रहा है, मीठा-मीठा सपना ले रहा है। 'हा! हंत हंत नलिनीं गज उज्जहार-उसी समय एक मदोन्मत्त हाथी आया, सूंड को आगे बढ़ाया, उस कमल - कोष को तोड़ा और उसे भंवरे सहित निगल गया । भ्रमर की कल्पना मन में रह गई।' 'प्रिये! देखो हम भी अगर निर्णय लेने में शिथिलता करेंगे तो उस भ्रमर की तरह पछताएंगे। उसका परिणाम भी अच्छा नहीं होगा। इतनी जल्दी क्या है? आज नहीं कल, कल नहीं परसो । अभी कुछ दिन ठहर कर लेंगे, यह शिथिलता उपयुक्त नहीं है। इसीलिए अब यह निर्णय हो जाना चाहिए कि हमें दीक्षा प्रभात के समय लेनी है।' 'प्रिये! अभी रात अवशेष है। हमारे पास समय है। हम बातचीत करें, निरीक्षण करें, विहंगावलोकन और सिंहावलोकन भी करें कि कहां से हमारी बात शुरू हुई और हम कहां पहुंचे हैं?" 'हां स्वामी! यह निरीक्षण और सिंहावलोकन हमारे पथ का पाथेय भी बन सकता है।' आठों कन्याओं ने एक स्वर से जम्बूकुमार के इस प्रस्ताव का समर्थन किया- 'स्वामी ! यह अंधियारी रात हमारे जीवन का नया प्रभात बन रही है। ' २७८ m गाथा परम विजय की ww
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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