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गाथा परम विजय की
हर व्यक्ति में भावना होती है और भावना का वेग भी होता है। नदी में जल होता है। कभी-कभी जल का वेग–पूर आता है तो तट भी टूटने लग जाते हैं। कार्य के लिए केवल भावना का वेग पर्याप्त नहीं है। एक संतुलन जरूरी होता है। संतुलन का बोध भगवान महावीर ने इस भाषा में दिया कोई भी काम करना चाहो, किसी भी काम में लगना चाहो तो पहले इतनी चीजों को देख लो-अपने बल को देखो, अपने स्थाम-प्राण ऊर्जा को देखो, अपनी श्रद्धा को देखो, अपने स्वास्थ्य को देखो। क्षेत्र और काल को देखो। इन सबको देखने के बाद किसी कार्य में लगो।
यह एक महत्त्वपूर्ण पथ-दर्शन है। जो व्यक्ति इन सब चीजों की समीक्षा कर कार्य में प्रवृत्त होता है, वह पार पा जाता है। इन सबकी समीक्षा किए बिना केवल भावनावश किसी बड़े कार्य में प्रवृत्त होता है तो शायद बीच में ही रह जाता है।
अपनी शक्ति को तोलने और नियोजित करने का प्रसंग सामने था। जम्बूकुमार सारी बात ध्यान से सुन रहा था। उसने युद्ध में जाने का प्रस्ताव भी प्रस्तुत कर दिया।
श्रेणिक बोला–विद्याधरवर! कल युद्ध होगा। जब रत्नचूल इतना शक्तिशाली है, मृगांक कमजोर है, किले में बंदी बना बैठा है, कैसे उसको जीत सकेगा? फिर क्यों लड़ेगा? लड़ना जरूरी है क्या?' विद्याधर बोला-'महाराज! क्या इस प्रश्न का उत्तर मुझे देना पड़ेगा? आप स्वयं जानते हैं
___ महतां न धनं प्राणाः किन्तु मानधनं महत्।
प्राणत्यागे यशस्तिष्ठेत्, मानत्यागे कुतो यशः।। महाराज! आप विद्वान् हैं, नीतिज्ञ हैं। नीति का वचन है-महान् आदमी का धन प्राण नहीं होता। उनका प्राण उनके लिए धन नहीं है अथवा उनका धन उनके लिए प्राण नहीं है। सम्मान उनका धन होता है। वह है यश। कोई भी बड़ा आदमी इस भौतिक शरीर में नहीं जीता, वह यशःशरीर में जीता है। कहीं भी यश को खंडित नहीं होने देता। वह यश की सुरक्षा करता है। रत्नचूल शक्तिशाली है, मृगांक उतना शक्तिशाली नहीं है। युद्ध होगा, प्राण चला जाएगा किन्तु यश तो रह जाएगा। अगर वह सम्मान को खोकर किले में बंदी बना