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________________ गाथा परम विजय की श्रीडूंगरगढ़ की घटना है। हम लोग बहुत छोटे थे। उन दिनों गुरुदेव श्रीडूंगरगढ़ में विराज रहे थे। गुरुदेव की पुस्तक-मंजूषा में भर्तृहरि विरचित नीतिशतक की एक सुन्दर प्रति थी। वह प्रति गुरुदेव ने मुझे पढ़ने के लिए दी। मैंने वह प्रति सहपाठी मुनि बुद्धमल्लजी को दिखाई। वे तनाव से भर गये। तत्काल पहुंचे गुरुदेव के पास, निवेदन किया-'गुरुदेव! मुझे भी नीतिशतक की प्रति चाहिए।' गुरुदेव ने कहा-'एक ही प्रति थी, वह हमने दे दी।' 'नहीं, मुझे भी देनी होगी।' किसी वस्तु की चाह उत्पन्न हो जाती है तो तनाव हो जाता है। यद्यपि खराब वस्तु नहीं थी, अच्छी वस्तु थी, ज्ञानवर्धक थी पर जब मन में चाह पैदा हो गई तो तनाव हुए बिना रहता नहीं है। आखिर जैसे-तैसे गुरुदेव को नई प्रति जुटाकर उन्हें देनी पड़ी। ___आरंभ में चाह ताप देती है। बार-बार सेवन करो, स्नायु का अभ्यास हो जाता है तो फिर वह अतृप्ति बन जाती है। चाह कभी तृप्त नहीं होती और अंत में उसे छोड़ना मुश्किल होता है। मैंने काम की इस प्रकृति को समझा है। ___'पद्मश्री! तुम्हारा यह तर्क-अति सर्वत्र वर्जयेत् सर्वत्र लागू नहीं होता। मेरे मन में काम-भोग की कोई आकांक्षा नहीं है। मैं तो निराकांक्ष-आकांक्षारहित और निराशंस-आशंसा रहित जीवन जीना चाहता हूं।' ‘पद्मश्री! अगर इस सचाई को समझकर मैं इसका पालन न करूं तो कठिहारा जैसा मूर्ख बन जाऊंगा।' ___ पद्मश्री जम्बूकुमार के कथन से प्रभावित बनती चली गई। उसने विनम्र स्वर में पूछा-'प्रियतम! आप कठिहारा जैसे मूर्ख कैसे बनेंगे? यह भी जरा समझा दो कि कठिहारा कैसे मूर्ख बना?' जम्बूकुमार बोला-पद्मश्री! एक कठिहारा, काष्ठहर था। जंगल से लकड़ियां भी लाता और जंगल में कोयले भी बनाता। वह एक दिन जंगल में कोयला बनाने गया। गर्मी का मौसम। जून का महीना। तेज गर्मी भयंकर लू का प्रकोप। ऐसी स्थिति में वहां जंगल में लकड़ियां काटकर कोयला बनाने गया। वह साथ में पीने के पानी की दीबड़ी भी ले गया। गर्मी इतनी तेज थी कि एक बार तो रास्ते में ही पानी पी लिया। आगे पहुंचा, लक्कड़ चीरे, फिर पानी पी लिया। अब आग जलाई, कोयला बनाने लगा। उसका ताप इतना था कि भयंकर प्यास लग गई। जो थोड़ा पानी बचा था, वह भी पी लिया। दीबड़ी का पानी समाप्त हो गया। ___एक ओर आग का ताप, दूसरी ओर जेठ के महीने की धूप का ताप, तीसरी ओर भयंकर प्यास। उसने सोचा-काम तो नहीं कर पाऊंगा। वह बाहर आया। एक बड़ा गहरा वृक्ष देखा। शीतल और सघन छाया। उसके नीचे जाकर लेट गया। थका मांदा और प्यास से व्याकुल। लेटते ही नींद आ गई। नींद में उसको सपना आया। जो आकांक्षा, जो चाह, जो भावना, जो संकल्प मन में जागृत अवस्था में होता है नींद में वह सपना बन जाता है। दिलै सुयं अणुभूयं-वह सपना होता है दृष्ट, श्रुत और अनुभूत। उसने सपने में देखा-मुझे प्यास बहुत लगी हुई है। कंठ सूख रहे हैं। मैं कुएं के पास गया। कुएं का पानी पीने लगा। मैं कुएं का सारा पानी पी गया। कुएं को खाली कर दिया। कुएं में पानी नहीं रहा। फिर भी मेरी प्यास नहीं बुझी। १६३
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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