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________________ দদ 1 गाथा परम विजय की स्थिति हो गई। इतना सुकुमार तुम्हारा शरीर । तुम मरणान्तक वेदना का अनुभव करने लगे । श्वास कंठ तक आ गया। ऐसे लगा कि जैसे प्राण पंखेरू उड़ने वाले हैं। उस समय अचानक एक कोई चरवाहा आया। उसने तुम्हारी अवस्था को देखा । तुम्हारी बोलने की स्थिति नहीं रही । तुमने हाथ से संकेत किया- पानी पिलाओ।' उसने तत्काल ठंडा-ठंडा एक गिलास पानी पिला दिया । तुम्हारे प्राण बच गए। बोलो - तुम उसके लिए क्या करोगे ?' 'महाराज! ऐसी स्थिति होती है, उस स्थिति में कोई पानी पिलाता है, मेरे प्राण बचा देता है तो मैं तो इतना प्रसन्न होऊंगा कि उसको आधा राज्य दे दूंगा।' 'ठीक बात है राजन्! तुम पानी पीकर कुछ सचेत हुए। नगर की ओर आए। सैनिक मिल गये, परिवार मिल गया, तुम महल में आए। गर्मी का मौसम था। शरीर में गर्मी बढ़ गई और मूत्रावरोध हो गया, पेशाब बंद हो गया। तुम फिर तड़पने लगे।' जब मूत्रावरोध होता है बड़ी समस्या होती है। हमने भी कुछ लोगों को तड़पते हुए देखा है जिनके मूत्रावरोध की समस्या थी। व्यक्ति बहुत तड़पता है, बेहाल-सा हो जाता है। 'राजन्! उस स्थिति में तुम वैसे तड़प रहे थे, जैसे बिना पानी के मछली तड़पती है। उस समय कोई चिकित्सक आए, तुम्हारी समस्या का समाधान कर दे। वह कोई दवा दे और मूत्रावरोध मिटा दे तो तुम क्या करोगे?' ‘महाराज! इतना खुश होऊंगा कि उसे आधा राज्य दे दूंगा।' मुनि बोले–'राजन्! अब बताओ, तुम्हारे राज्य का मूल्य कितना हुआ। आधा राज्य एक गिलास पानी पिलाने वाले को दिया और आधा राज्य एक गिलास पानी निकालने वाले को । तुम्हारे राज्य का मूल्य हुआ दो गिलास पानी—एक गिलास भीतर डाला और एक गिलास बाहर निकाला। ' राजा को अब समझ में आया कि सचाई क्या है? आखिर पदार्थ का मूल्य कितना है! जम्बूकुमार बोला-'समुद्रश्री! यह सम्पदा, यह सुख, जो नश्वर है, चले जाने वाला है, जिसे हमने मोहवश सुख मान रखा है, वह वास्तव में सुख नहीं है। उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है।' ‘समुद्रश्री! एक आदमी खुजली करता है। कितनी मीठी लगती है। खुजलाना बहुत अच्छा लगता है। बड़े-बड़े समझदार आदमी भी स्वयं को रोक नहीं पाते। छोटे बच्चे तो रोक ही नहीं पाते। कभी-कभी माताएं हाथ बांध देती हैं इसलिए कि शरीर लहूलुहान न हो जाए । खुजली के कीटाणु प्रबल होते हैं तब खुजलाना कितना अच्छा लगता है। वैसे ही मोह के कीटाणु हमारे भीतर हैं, वे प्रबल बने हुए हैं, इसलिए हमें यह पदार्थ-भोग अच्छा लग रहा है।' 'समुद्रश्री ! ऐसा लगता है कि तूने महावीर की वाणी को शायद पढ़ा नहीं है। तुम कह तो यह रही हो कि आप भोले हैं, आप पढ़े-लिखे नहीं हैं, समझदार नहीं हैं पर मुझे लगता है कि तुमने भी महावीर की वाणी को पढ़ा नहीं है। समुद्रश्री! महावीर कहते हैं उवलेवो होइ भोगेसु अभोगी णोवलिप्पड़ । भोगी भइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्च || १८१
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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