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पिब खाद च चारुलोचने, यदतीतं वर गात्र तन्नते । नहि भीरुगतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ।।
खूब खाओ, पीओ, मौज करो, और कुछ करने की जरूरत नहीं है। किसने देखा है- आत्मा है, पुनर्जन्म है। यहां तक कहा गया- 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत' - पास में कुछ नहीं है तो ऋण करके भी घी का सेवन करो। पुराने जमाने में घी का प्रयोग ज्यादा था, घी को रत्न मान लिया गया। यह कहा गया- ऐसा तृप्त हो गया मानो सवा सेर घी पी लिया। लोग पी जाते थे सवा सेर घी । मण का तेरिया - एक मण घी और तेरह लोग बैठते तो पूरा घी पी जाते पानी की तरह। हमने भी देखा है कुछ लोगों को। वे घी को ऐसे पीते जैसे पानी पी रहे हैं। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत-घी पीओ । यदि सहज सुलभ नहीं है, पास में पैसा नहीं है तो ऋण लेकर भी पीओ।
आज के युग में लोग इस भाषा में कहेंगे ऋणं कृत्वा सुरां पिबेत-ऋण करो और शराब पीते चले जाओ।
समुद्रश्री बोली- 'प्रियतम! आप आगे की चिंता मत करो। न कोई परलोक है, न कोई जन्म है, न कोई मरण है, न कोई कर्म है। जो सुख के साधन प्राप्त हैं, उन्हें भोगें । '
इंद्रिय चेतना का वक्तव्य सामने आ गया। इसको नास्तिकता कहें, अधर्म का सिद्धांत कहें, कुछ भी
कहें।
समुद्रश्री ने इंद्रिय चेतना का प्रतिनिधित्व कर दिया और प्रतिनिधित्व भी सशक्त स्वर में किया।
जम्बूकुमार ने सारी बात सुनी, बोला - समुद्रश्री! तुम बोलने में तो बहुत चतुर हो। आज मुझे पता चला कि तुम बहुत वाक्पटु भी हो। तुमने अपना पक्ष रखा है, बहुत अच्छी तरह रखा है। तुम मान लो कि मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूं, समझदार नहीं हूं। अब तुम्हारे जैसी पत्नी मिल गई तो एक घंटा में ही मैं समझदार बन जाऊंगा।'
'समुद्रश्री! तुमने बहुत अच्छा वक्तव्य दिया है पर मेरी बात भी सुनना चाहोगी या अपनी वाक्पटुता जारी रखोगी ?'
जम्बूकुमार ने मधुर स्वर में यह कहा तो समुद्रश्री को मौन हो जाना पड़ा।
जम्बूकुमार अब कुछ बोलेगा, वह होगा अतीन्द्रिय चेतना का वक्तव्य । जो इंद्रिय चेतना से परे है, उसका क्या वक्तव्य होगा ?
यह जिज्ञासा सब नवोढ़ा के मन में उभर रही है -क्या जम्बूकुमार समुद्रश्री की युक्तियों का खंडन कर सकेगा?
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गाथा परम विजय की
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