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कहलाती है। इस अरहन्त भक्ति से तीर्थंकर नाम कर्म बंधता है ।
अरिहंत भक्ति संयम में आने वाले विघ्नों को दूर करती है
जो संजमं खु घेत्तिय जिणभत्तिं विणा वट्टदे साहू | सो संजम - विग्घकरं कम्मं णासेदि किह मूढो ॥ ५ ॥
मैंने दीक्षा धारण कर ली श्री जिनवर का रूप मिला रहा प्रयोजन क्या भक्ति से संयम का उपहार मिला । जो विचारता ऐसा साधु वह संयम की बाधाएँ कैसे नाश करेगा मूरख कर्मों की आबाधाएँ ॥ ५ ॥
अन्वयार्थ : [ जो ] जो [ साहू ] साधु [ संजमं] संयम को [ खु] यथार्थ में [ घेत्तिय ] ग्रहण करके [ जिणभत्तिं ] जिनभक्ति के [ विणा] बिना [ वट्टदे ] प्रवृत्ति करता है [ सो ] वह [ मूढो ] मूढ़ [ संजमविग्घकरं ] संयम में विघ्न करने वाले [ कम्मं ] कर्म को [ किह ] कैसे [ णासेदि ] नाश करेगा ?
भावार्थ : जो साधु संयम ग्रहण करके जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति नहीं करता है और उनके प्रति श्रद्धा न रखकर अपने आवश्यकों को जैसे-तैसे पूरा कर लेता है वह संयम में विघ्न उत्पन्न करने वाले कर्मों को जीत नहीं सकता है । जिनेन्द्र भक्ति संयम के कठिन रास्ते पर आने वाले उतार-चढ़ाव और बाधाओं को दूर करके सीधा रास्ता बनाती है । जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति ही मोह मुद्रा के कपाट खोलती जाती है । जिनभक्ति के बिना मुक्ति के द्वार नहीं खुल सकते हैं। एकीभाव स्तोत्र में श्री वादिराज मुनि ने कहा है
'शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा भक्तिर्नो चेदनवधिसुखा वञ्चिका कुञ्चिकेयम् । शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो मुक्तिद्वारं परिदृढ-महा-मोह-मुद्रा-कवाटम् ॥' १३
अर्थात् विशुद्ध ज्ञान और निर्मल चारित्र के रहते हुए भी यदि जिनेन्द्र की भक्तिमय अथवा सम्यग्दर्शन रूपी कुञ्जी नहीं है तो फिर महा मिथ्यात्व रूपी मुद्रा से अंकित मोक्ष मन्दिर का द्वार कैसे खोला जा सकता है। अर्थात् भक्ति रूपी कुञ्जिका के बिना मुक्ति द्वार का खुलना नितान्त कठिन है ।
इसलिए संयम ग्रहण करके जो जिनभक्ति में प्रमादी रहता है वह मूढ़ है । वह पाप कर्म का नाश करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है।
संयमी को जिनभक्ति बहुत आवश्यक है